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उत्तराध्ययन- ३० /१२१६
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[१२१६] एकान्त, अनापात तथा स्त्री- पशु आदि से रहित शयन एवं आसन ग्रहण करना, ' विविक्तशयनासन' तप है ।
[१२१७-१२१८] संक्षेप में यह बाह्य तप का व्याख्यान है । अब क्रमशः आभ्यन्तर तप का निरूपण करूँगा । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग- यह आभ्यन्तर तप है ।
[१२१९] आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, 'प्रायश्चित्त' तप है ।
[१२२०] खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भाव- पूर्वक शुश्रूषा करना, 'विनय' तप है ।
[१२२१] आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्य का यथाशक्ति आसेवन करना, ' वैयावृत्य' तप है ।
[१२२२] वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा - यह पंचविध 'स्वाध्याय'
तप है ।
[१२२३] आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर सुसमाहित मुनि जो धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याता है, ज्ञानीजन उसे ही 'ध्यान' तप कहते हैं ।
[१२२४] सीने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ की चेष्टा नहीं करता है, यह शरीर का व्युत्सर्ग-'व्युत्सर्ग' नामक छठा तप है ।
[१२२५] जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से विमुक्त हो जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ३० - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - ३१ - चरणविधि
[१२२६] जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरण - विधि का कथन करूँगा, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार - सागर को तैर गए हैं ।
[१२२७] साधक को एक ओर से निवृत्ति और एक ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए । असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति ।
[१२२८] पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं । इन दो पाप कर्मों का जो भिक्षु सदा निरोध करता है, वह संसार में नहीं रुकता है ।
[१२२९] तीन दण्ड, तीन गौरव और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रुकता है ।
[१२३०] देव, तिर्यच और मनुष्य-सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है ।
[१२३१] जो भिक्षु विकथाओं का, कपायों का, संज्ञाओं का और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है ।
[१२३२] जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में तथा इन्द्रिय-विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्नशील रहता है, वह संसार में नहीं रुकता है ।