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उत्तराध्ययन-२९/११८५
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है ? राग, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है । आठ प्रकर की कर्म-ग्रन्थि को खोलने के लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्रमशः क्षय करता है । अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच, दर्शना-वरणीय कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पाँच-इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है । तदनन्तर वह अनुत्तर, अनन्त, सर्ववस्तुविषयक, प्रतिपूर्ण, निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, विशुद्ध और लोकालोक के प्रकाशक केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त होता है । जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक ऐर्या-पथिक कर्म का बन्ध होता है । वह बन्ध भी सुख-स्पर्शी है, उसकी स्थिति दो समय की है । प्रथम समय में वन्ध होता है, द्वितीय समय में उदय होता है, तृतीय समय में निर्जरा होती है । वह कर्म क्रमशः बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट होता है, फलतः अन्त में वह कर्म अकर्म हो जाता है ।
[११८६] केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् शेष आयु को भोगता हुआ, जब अन्तर्मुहूर्तपरिणाम आयु शेष रहती है, तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है । तब ‘सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति' नामक शुक्ल-ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर वचन योग का निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान का निरोध करता है । श्वासोच्छ्वास का निरोध रके पांच ह्रस्वअक्षरों के उच्चारण काल तक ‘समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन चार कर्मों का एक साथ क्षय करता है ।।
[११८७] उसके बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप से छोड़ता है । फिर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप ऊर्ध्वगति से विना मोड़ लिए सीधे लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्त-ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है । सभी दुःखों का अन्त करता है ।
[११८८] श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ आख्यात है, प्रज्ञापित है, प्ररूपित है, दर्शित है और उपदर्शित है । -ऐसा मैं कहता हूं ।
( अध्ययन-३०-तपोमार्गगति) [११८९] भिक्षु राग और द्वेष से अर्जित पाप-कर्म का तप के द्वारा जिस पद्धति से क्षय करता है, उस पद्धति को तुम एकाग्र मन से सुनो ।
_ [११९०-११९१] प्राण-वध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन की विरति से एवं पाँच समिति और तीन गुप्ति से-सहित, कषाय से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी, निःशल्य जीव अनाश्रव होता है ।
[११९२] उक्त धर्म-साधना से विपरीत आचरण करने पर राग-द्वेष से अर्जित कर्मों को भिक्षु किस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र मन से सुनो ।
[११९३-११९४] किसी बड़े तालाप का जल, जल आने के मार्ग को रोकने से, पहले के जल को उलीचने से और सूर्य के ताप से क्रमशः जैसे सूख जाता है उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भावों के संचित कर्म, पाप कर्म के आने के मार्ग को रोकने पर तप से नष्ट