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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है-वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-छहों कायों का विराधक होता है । प्रतिलेखन में अप्रमत्त मुनि छहों कायों का आराधक होता है।
[१०३७-१०३८] छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर तीसरे प्रहर में भक्तपान की गवेषणा करे । क्षुधा-वेदना की शान्ति, वैयावृत्य, ईर्यासमिति के पालन, संयम, प्राणों की रक्षा और धर्मचिंतन के लिए भक्तपान की गवेषणा करे ।
[१०३९-१०४०] घृति-सम्पन्न साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की गवेषणा न करे, जिससे संयम का अतिक्रमण न हो । रोग होने पर, उपसर्ग आने पर, ब्रह्मचर्य गुप्ति की सुरक्षा, प्राणियों की दया, तप और शरीरविच्छेद के लिए मुनि भक्त-पान की गवेषणा न करे ।
[१०४१] सब उपकरणों का आँखों से प्रतिलेखन करे और उन्हें लेकर आवश्यक हो, तो दूसरे गाँव में मुनि आधे योजन की दूरी तक भिक्षा के लिए जाए ।
[१०४२-१०४३] चतुर्थ प्रहर में प्रतिलेखना कर सभी पात्रों को बाँध कर रख दे । उसके बाद जीवादि सब भावों का प्रकाशक स्वाध्याय करे । पौरुषी के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर शय्या का प्रतिलेखन करे ।
[१०४४-१०४८] देवसिक-प्रतिक्रमण-यतना में प्रयत्नशील मुनि फिर प्रस्रवण और उच्चार-भूमिका प्रतिलेखन करे । उसके बाद सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित दिवस-सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे। कायोत्सर्ग को पूर्ण करके गुरु को वन्दना करे । तदनन्तर अनुक्रम में दिवससम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे । प्रतिक्रमण कर, निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । उसके बाद सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पूरा करके गुरु को वन्दना करे । फिर स्तुतिमंगल करके काल का प्रतिलेखन करे ।
[१०४९-१०५०] रात्रिक कृत्य एवं प्रतिक्रमण-प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । चौथे प्रहर में कालका प्रतिलेखन कर, असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे ।
[१०५१-१०५४] चतुर्थ प्रहर के चौथे भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर, काल का प्रतिलेखन करे । सब दुःखों से मुक्त करने वाले कायोत्सर्ग का समय होने पर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सम्बन्धित रात्रि-सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को पूरा कर, गुरु को वन्दना करे । फिर अनुक्रम से रात्रिसम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे ।
[१०५५-१०५७] प्रतिक्रमण कर, निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । तदनन्तर सब दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चिन्तन करे कि 'मैं आज किस तप को स्वीकार करूं ।" कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे । कायोत्सर्ग पूरा होने पर गुरु को वन्दना करे । उसके बाद यथोचित तप को स्वीकार कर सिद्धों की स्तुति करे ।
[१०५८] संक्षेप में यह सामाचारी कही है । इसका आचरण कर बहुत से जीव संसारसागर को तैर गये हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ ।