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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
दीक्षित हो गया ।
[१००६] जयघोष और विजयघोष ने संयम और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-२५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-२६-सामाचारी) [१००७] सामाचारी सब दुःखों से मुक्त कराने वाली है, जिसका आचरण करके निर्ग्रन्थ संसार सागर को तैर गए हैं । उस सामाचारी का मैं प्रतिपादन करता हूँ
[१००८-१०१०] पहली आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आपृच्छना, चौथी प्रतिपृच्छना पाँचवी छन्दना, छठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, आठवीं तथाकार-नौवीं अभ्युत्थान और दसवीं उपसंपदा है । इस प्रकार ये दस अंगों वाली साधुओं की सामाचारी प्रतिपादन की गई है ।
[१०११-१०१३] (१) बाहर निकलते समय “आवस्सिय" कहना, 'आवश्यकी' सामाचारी है । (२) प्रवेश करते समय "निस्सिहियं" कहना, 'नषेधिकी' सामाचारी है । (३) अपने कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना, 'आपृच्छना' सामाचारी है । (४) दूसरों के कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना 'प्रतिपृच्छना' सामाचारी है । (५) पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए आमन्त्रित करना, 'छन्दना' सामाचारी है । (६) कार्य करने के लिए दूसरों को उनकी इच्छानुकूल विनम्र निवेदन करना, 'इच्छाकार' सामाचारी है । (७) दोष निवृत्ति के लिए आत्मनिन्दा 'मिथ्याकार' सामाचारी है । (८) गुरुजनों के उपदेश को स्वीकार करना, 'तथाकार' सामाचारी है । (९) गुरुजनों की पूजा के लिए आसन से उठकर खड़ा होना, 'अभ्युत्थान' सामाचारी है । (१०) प्रयोजन से दूसरे आचार्य के पास रहना, 'उपसम्पदा' सामाचारी है । इस प्रकार दशांग-सामाचारी का निरूपण किया गया है ।
[१०१४-१०१६] सूर्योदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में उपकरणों का प्रतिलेखन कर गुरु को वन्दना कर-हाथ जोड़कर पूछे कि-"अब मुझे क्या करना चाहिए ? भन्ते ! मैं चाहता हूँ, मुझे आप आज स्वाध्याय में नियुक्त करते हैं, अथवा वैयावृत्य में ।" वैयावृत्य में नियुक्त किए जाने पर ग्लानि से रहित होकर सेवा करे । अथवा सभी दुःखों से मुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त किए जाने पर ग्लानि से रहित होकर स्वाध्याय करे।
[१०१७-१०१८] विचक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे । उन चारों भागों में स्वाध्याय आदि गुणों की आराधना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे ।।
[१०१९-१०२१] आषाढ़ महीने में द्विपदा पौरुषी होती है । पौष महीने में चतुष्पदा और चैत्र एवं आश्विन महीने में त्रिपदा पौरुषी होती है । सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि और हानि होती है । आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख के कृष्ण पक्ष में एक-एक अहो रात्रि का क्षय होता है।
[१०२२] जेष्ठ, आषाढ़ और श्रावण में छह अंगुल, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक में आठ अंगुल तथा मृगशिर, पौष और माघ-में दस अंगुल और फाल्गुन, चैत्र, वैसाख में आठ