________________
उत्तराध्ययन-२४/९४५
१०५
और परिमिति भाषा बोले ।
[९४६-९४७] गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा से आहार, उपधि और शय्या का परिशोधन करे । यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला यति प्रथम एषणा में उद्गम और उत्पादन दोषों का शोधन करे । दूसरी एषणा में आहारादि ग्रहण करने से सम्बन्धित दोषों का शोधन करे । परिभोगैषणा में दोष-चतुष्क का शोधन करे ।
[९४८-९४९] मुनि ओध-उपधि और औपग्रहिक उपधि दोनों प्रकार के उपकरणों को लेने और रखने में इस विधि का प्रयोग करे । यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला यति दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके ले और रखे ।
[९५०-९५३] उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघानक, जल्ल, आहार, उपधि-उपकरण, शरीर तथा अन्य कोई विसर्जनयोग वस्तु को विवेकपूर्वक स्थण्डिल भूमि में उत्सर्ग करे । अनापात असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो, और वे दूर से भी न दीखते हों । अनापात संलोक-लोगों का आवागमन न हो, किन्तु लोग दूर से दीखते हों । आपात असंलोक-लोगों का आवागमन हो, किन्तु वे दीखते न हों । आपात संलोक-लोगों का आवागमन हो और वे दिखाई भी देते हों । इस प्रकार स्थण्डिल भूमि चार प्रकार से होती है । जो भूमि अनापात-असंलोक हो, परोपघात से रहित हो, सम हो, अशुषिर हो तथा कुछ समय पहले निर्जीव हुई हो-विस्तृत हो, गाँव से दूर हो, बहुत नीचे तक अचित्त हो, बिल से रहित हो, तथा त्रस प्राणी और बीजों से रहित हो. ऐसी भूमि में उच्चार आदि का उत्सर्ग करना चाहिए।
[९५४] ये पाँच समितियाँ संक्षेप से कही गई हैं । अब यहाँ से क्रमशः तीन गुप्तियाँ कहूँगा ।
- [९५५-९५६] मनोगुप्ति के चार प्रकार हैं-सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यमृषा है, जो केवल लोकव्यवहार है । यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन का निर्वतन करे ।
[९५७-९५८] वचन गुप्ति के चार प्रकार हैं-सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का निवर्तन करे ।
[९५९-९६०] खड़े होने में, बैठने में, त्वग्वर्तन में, उल्लंघन में, प्रलंघन में, शब्दादि विषयों में, इन्द्रियों के प्रयोग में संरम्भ में, सभारम्भ में और आरम्भ में प्रवृत्त काया का निवर्तन करे ।
[९६१] ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं । और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं ।
[९६२] जो पण्डित मुनि इन प्रवचनमाताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से मुक्त हो जाता है | -ऐसा मैं कहता हूँ ।
( अध्ययन-२५-यज्ञीय [९६३-९६५] ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, महान् यशस्वी जयघोष ब्राह्मण था, जो हिंसक यमरूप यज्ञ में अनुरक्त यायाजी था । वह इन्द्रिय-समूह का निग्रह करने वाला, मार्गगामी