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उत्तराध्ययन-१९/७१२
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एवं मोक्षरूपगति से प्रधान - उत्तम चारित्र को सुनकर धन को दुःखवर्धक तथा ममत्वबन्धन को महाभयंकर जानकर निर्वाण के गुणों को प्राप्त करने वाली, सुखावह, अनुत्तर धर्म- धुरा को धारण करो । —ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-२०-३ - महानिर्ग्रन्थीय
[ ७१३] सिद्धों एवं संयतों को भावपूर्वक नमस्कार करके मैं मोक्ष और धर्म के स्वरूप का बोध कराने वाली तथ्यपूर्ण अनुशिष्टि का कथन करता हूँ, उसे सुनो ।
[७१४-७१५] गज-अश्व तथा मणि माणिक्य आदि प्रचुर रत्नों से समृद्ध मगध का अधिपति राजा श्रेणिक मण्डिकुक्षि चैत्य में विहार- यात्रा के लिए नगर से निकला । वह उद्यान विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से आकीर्ण था, नाना प्रकार के पक्षियों से परिसेवित था और विविध प्रकार के पुष्पों से भली-भाँति आच्छादित था । विशेष क्या कहे ? वह नन्दनवन के समान था ।
[७१६-७१८] राजा ने उद्यान में वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक संयत, समाधि-संपन्न, सुकुमार एवं सुखोचित-साधु को देखा । साधु के अनुपम रूप को देखकर राजा को उसके प्रति बहुत ही अधिक अतुलनीय विस्मय हुआ । अहो, क्या वर्ण है ! क्या रूप है ! आर्य की कैसी सौम्यता है ! क्या क्षान्ति है, क्या मुक्ति है ! भोगों के प्रति कैसी असंगता है !
[७१९ ७२०] मुनि के चरणों में वन्दना और प्रदक्षिणा करने के पश्चात् राजा न अतिदूर, न अति निकट खड़ा रहा और हाथ जोड़कर पूछने लगा - " हे आर्य ! तुम अभी युवा हो । फिर भी तुम भोगकाल में दीक्षित हुए हो, श्रामण्य में उपस्थित हुए हो । इसका क्या कारण है, मैं सुनना चाहता हूँ ।"
[७२१] – “महाराज ! मैं अनाथ हूँ । मेरा कोई नाथ नहीं है । मुझ पर अनुकम्पा रखनेवाला कोई सुहृद् नहीं पा रहा हूँ ।"
[७२२-७२३] यह सुनकर मगधाधिप राजा श्रेणिक जोर से हँसा और बोला - "इस प्रकार तुम देखने में ऋद्धि संपन्न लगते हो, फिर भी तुम्हारा कोई कैसे नाथ नहीं है ?" “भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ । हे संयत ! मैं तुम्हार नाथ होता हूँ । हे संयत ! मित्र और ज्ञातिजनों के साथ भोगों को भोगो । यह मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है ।"
[ ७२४] - " श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो । मगधाधिप ! जब तुम स्वयं अनाथ हो तो किसी के नाथ कैसे हो सकोगे ?”
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[७२५-७२७] राजा पहले ही विस्मित हो रहा था, अब तो मुनि से अश्रुतपूर्व वचन सुन कर तो और भी अधिक संभ्रान्त एवं विस्मित हुआ । उसने कहा- “मेरे पास अश्व, हाथी, नगर और अन्तःपुर है । मैं मनुष्यजीवन के सभी सुख भोगों को भोग रहा हूँ । मेरे पास शासन और ऐश्वर्य भी है ।" -" इस प्रकार प्रधान श्रेष्ठ सम्पदा, जिसके द्वारा सभी कामभोग मुझे समर्पित होते हैं, मुझे प्राप्त हैं । इस स्थिति में भला मैं कैसे अनाथ हूँ ? आप झूठ न बोलें ।” [७२८-७२९] –“पृथ्वीपति- नरेश ! तुम 'अनाथ' के अर्थ और परमार्थ को नहीं जानते हो । - "महाराज ! अव्याक्षिप्त चित्तसे मुझे सुनिए कि यथार्थ में अनाथ कैसे होता है ? [७३०] - "प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर कौशाम्बी नगरी है । वहाँ मेरे पिता थे ।