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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
करता है ।"
[७६५] इस प्रकार उग्र-दान्त, महान् तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान्-यशस्वी उस महामुनि ने इस महा-निर्ग्रन्थीय महाश्रुत को महान् विस्तार से कहा ।
[७६६-७६७] राजा श्रेणिक संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़कर बोला-"भगवन् ! अनाथ का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे ठीक तरह समझाया है ।" "हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य-जन्म सफल है, उपलब्धियाँ सफल हैं, तुम सच्चे सनाथ और सवान्धव हो, क्योंकि तुम जिनेश्वर के मार्ग में स्थित हो ।"
[७६८-७६९] -“हे संयत ! तुम अनाथों के नाथ हो, सब जीवों के नाथ हो । मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ । मैं तुम से अनुशासित होने की इच्छा रखता हूँ ।" -“मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया, उन सब के लिए मुझे क्षमा करें ।"
[७७०] इस प्रकार राजसिंह श्रेणिक राजा अनगार-सिंह मुनि की परम भक्ति से स्तुति कर अन्तःपुर तथा अन्य परिजनों के साथ धर्म में अनुरक्त हो गया ।
[७७१] राजा के रोमकूप आनन्द से उच्छ्वसित-उल्लसित हो रहे थे । वह मुनि की प्रदक्षिणा और सिर से वन्दना करके लौट गया ।
[७७२] और वह गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत, मोहमुक्त मुनि पक्षी की भाँति विप्रमुक्त होकर भूतल पर विहार करने लगे । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-२०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
( अध्ययन-२१-समुद्रपालीय) [७७३-७७६] चम्पा नगरी में 'पालित' नामक एक वणिक्श्रावक था । वह विराट पुरुष भगवान् महावीर का शिष्य था । वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का विद्वान् था । एक बार पोत से व्यापार करता हआ वह पिहण्ड नगर आया । वहां व्यापार करते समय उसे एक व्यापारी ने विवाह के रूप में अपनी पुत्री दी । कुछ समय के बाद गर्भवती पत्नी को लेकर उसने स्वदेश की ओर प्रस्थान किया । पालित की पत्नी ने समुद्र में हो पुत्र को जन्म दिया । इसी कारण उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा ।
[७७७-७७९] वह वणिक् श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया । वह सुकुमार बालक उसके घर में आनन्द के साथ बढ़ने लगा । उसने बहत्तर कलाएँ सीखीं, वह नीति-निपुण हो गया । वह युवावस्था से सम्पन्न हुआ तो सभी को सुन्दर और प्रिय लगने लगा। पिता ने उसके लिए 'रूपिणी' नाम की सुन्दर भार्या ला दी । वह अपनी पत्नी के साथ दोगुन्दक देव की भाँति सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा।
[७८०-७८२] एक समय वह प्रासाद के आलोकन में बैठा था । वध्य चिन्हों से युक्त वध्य को बाहर वध-स्थान की ओर ले जाते हुए उसने देखा । उसे संवेग-प्राप्त समुद्रपाल ने मन में कहा-"खेद है ! यह अशुभ कर्मों का दुःखद परिणाम है ।" इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह महान् आत्मा संवेग को प्राप्त हुआ और सम्बुद्ध हो गया । माता-पिता को पूछ कर उसने अनगारिता दीक्षा ग्रहण की ।