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उत्तराध्ययन-२२/८२०
कोमल और धुंधराले बालों का स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच किया ।
[८२१-८२३] वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा-“हे दमीश्वर ! तुम अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो ।" - "तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति के द्वारा आगे बढ़ो" । इस प्रकार बलराम, केशव, दशाह यादव और अन्य बहुत से लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी को लौट आए ।
[८२४-८२६] भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या सुनकर राजकन्या राजीमती के हास्य और आनन्द सब समाप्त हो गए । और वह शोकसे मूर्छित हो गई । राजीमती ने सोचा"धिक्कार है मेरे जीवन को । चूँकि मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्ता हूँ, अतः मेरा प्रवजित होना ही श्रेय है ।" धीर तथा कृतसंकल्प राजीमती ने कूर्च और कंधी से सँवारे हुए भौरे जैसे काले केशों का अपने हाथों से लुंचन किया ।
[८२७] वासुदेव ने लुप्त-केशा एवं जितेन्द्रिय राजीमती को कहा-"कन्ये ! तू इस घोर संसार-सागर को अति शीघ्र पार कर ।"
[८२८] शीलवती एवं बहुश्रुत राजीमती ने प्रव्रजित होकर अपने साथ बहुत से स्वजनों तथा परिजनों को भी प्रव्रजित कराया ।
[८२९-८३१] वह रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि बीच में ही वर्षा से भीग गई । जोर की वर्षा हो रही थी, अन्धकार छाण हुआ था । इस स्थिति में वह गुफा के अन्दर पहुंची। सुखाने के लिए अपने वस्त्रों को फैलाती हुई राजीमती को यथाजात रूप में रथनेमि ने देखा। उसका मन विचलित हो गया । पश्चात् राजीमती ने भी उसको देखा । वहाँ एकान्त में उस संयत को देख कर वह डर गई । भय से काँपती हुई वह अपनी दोनों भुजाओं से शरीर को आवृत कर बैठ गई ।
[८३२-८३४] तब समुद्रविजय के अंगजात उस राजपुत्र ने राजीमती को भयभीत और काँपती हुई देखकर वचन कहा-“भद्रे ! मैं स्थनेमि हूँ । हे सुन्दरी ! हे चारुभाषिणी ! तू मुझे स्वीकार कर । हे सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी ।" - "निश्चित ही मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । आओ, हम भोगों को भोगे । बाद में भुक्तभोगी हम जिन-मार्ग में दीक्षित होंगे ।"
[८३५-८३६] संयम के प्रति भग्नोद्योग तथा भोग-वासना से पराजित रथनेमि को देखकर वह सम्भ्रान्त न हुई । उसने वस्त्रों से अपने शरीर को पुनः ढंक लिया । नियमों और व्रतों में सुस्थित श्रेष्ठ राजकन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहा
[८३७-८३९] -“यदि तू रूप से वैश्रमण के समान है, ललित कलाओं से नलकुबर के समान है, तू साक्षात् इन्द्र भी है, तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ।" ["अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली, प्रज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वनम किए हुए अपने विष को पुनः पीने की इच्छा नहीं करते हैं ।"] –“हे यशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे कि तू भोगी जीवन के लिए त्यक्त भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है । इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है ।" - "मैं भोजराजा की पौत्री हूँ और तू अन्धक-वृष्णि का पौत्र है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न बनें । तू निभृत होकर संयम