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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
( अध्ययन-२२-रथनेमीय ) [७९७-७९८] सोरियपुर नगर में राज-लक्षणों से युक्त, महान् ऋद्धि से संपन्न 'वसुदेव' राजा था । उसकी रोहिणी और देवकी दो पत्नियाँ थीं । उन दोनों के राम (बलदेव) और केशव (कृष्ण)-दो प्रिय पुत्र थे ।
[७९९-८००] सोरियपुर नगर में राज-लक्षणों से युक्त, महान् ऋद्धि से संपन्न 'समुद्रविजय' राजा भी था । उसकी शिवा पत्नी थी, जिसका पुत्र महान् यशस्वी, जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ, लोकनाथ, भगवान् अरिष्टनेमि था ।।
[८०१-८०४] वह अरिष्टनेमि सुस्वरत्व एवं लक्षणों से युक्त था । १००८ शुभ लक्षणों का धारक भी था । उसका गोत्र गौतम था और वह वर्ण से श्याम था । वह वज्रऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्त्र संस्थानवाला था । उसका उदर मछली के उदर जैसा कोमल था । राजमती कन्या उसकी भार्या बने, यह याचना केशव ने की । यह महान राजा की कन्या सुशील, सुन्दर, सर्वलक्षणसंपन्न थी । उसके शरीर की कान्ति विद्युत् की प्रभा समान थी । उसके पिता ने महान् ऋद्धिशाली वासुदेव को कहा-"कुमार यहाँ आए । मैं अपनी कन्या उसके लिए दे सकता हूँ ।"
[८०५-८०८] अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से स्नान कराया गया । यथाविधि कौतुक एवं मंगल किए गए । दिव्य वस्त्र-युगल पहनाया गया और उसे आभरणों से विभूषित किया गया । वासुदेव के सबसे बड़े मेत्त गन्धहस्ती पर अरिष्टनेमि आरूढ हुए तो सिर पर चूडामणि की भाँति बहत अधिक सुशोभित हए । अरिष्टनेमि ऊँचे छत्र से तथा चामरों से सुशोभित था । दशार्ह-चक्र से वह सर्वतः परिवृत था । चतुरंगिणी सेना यथाक्रम सजाई हुई थी । और वाद्यों का गगन-स्पर्शी दिव्य नाद हो रहा था ।
[८०९-८१३] ऐसी उत्तम ऋद्धि और धुति के साथ वह वृष्णि-पुंगव अपने भवन से निकला । तदनन्तर उसने बाड़ों और पिंजरों में बन्द किए गए भयत्रस्त एवं अति दुःखित प्राणियों को देखा । वे जीवन की अन्तिम स्थिति के सम्मुख थे । मांस के लिए खाये जाने वाले थे । उन्हें देखकर महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि ने सारथि को कहा-“ये सब सुखार्थी प्राणी किसलिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ?" सारथि ने कहा-"ये भद्र प्राणी आपके विवाह-कार्य में बहुत से लोगों को मांस खिलाने के लिए हैं" |
[८१४-८१६] अनेक प्राणियों के विनाश से सम्बन्धित वचन को सुनकर जीवों के प्रति करुणाशील, महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि चिन्तन करते हैं-“यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से प्राणियों का वध होता है, तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा ।" उस महान् यशस्वी ने कुण्डल-युगल, सूत्रक और अन्य सब आभूषण उतार कर सारथि को दे दिए ।
[८१७-८२०] मन में ये परिणाम होते ही उनके यथोचित अभिनिष्क्रमण के लिए देवता अपनी ऋद्धि और परिपद् के साथ आए । देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि शिबिकारत्न में आरूढ़ हुए । द्वारका से चल कर रैवतक पर्वत पर स्थित हुए । उद्यान में पहुँचकर, उत्तम शिबिका से उतरकर, एक हजार व्यक्तियों के साथ, भगवान ने चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया । तदनन्तर समाहित-अरिष्टनेमि ने तुरन्त अपने सुगन्ध से सुवासित