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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
का पालन कर ।"
[८४०-८४२] “यदि तू जिस किसी स्त्री को देखकर ऐसे ही राग-भाव करेगा, तो वायु से कम्पित हड की तरह तू अस्थितात्मा होगा ।" -"जैसे गोपाल और भाण्डपाल उस द्रव्य के स्वामी नहीं होते हैं, उसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा ।" - "तू क्रोध, मान, माया और लोभ को पूर्णतया निग्रह करके, इन्द्रियों को वश में करके अपने-आप को उपसंहार कर
[८४३-८४५] उस संयता के सुभाषित वचनों को सुनकर स्थनेमि धर्म में सम्यक् प्रकार से वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी हो जाता है । वह मन, वचन और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय और व्रतों में दृढ़ हो गया । जीवन-पर्यन्त निश्चल भाव से श्रामण्य का पालन करता रहा । उग्र तप का आचरण करके दोनों ही केवली हुए । सब कर्मों का क्षय करके उन्होंने अनुत्तर 'सिद्धि' को प्राप्त किया ।
[८४६] सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं । पुरुषोत्तम रथनेमि की तरह वे भोगों से निवृत्त हो जाते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
(अध्ययन-२३-केशिगौतमीय) [८४७-८५०] पार्श्व नामक जिन, अर्हन, लोकपूजित सम्बुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक और वीतराग थे । लोक-प्रदीप भगवान् पार्श्व के ज्ञान और चरण के पारगामी, महान् यशस्वी 'केशीकुमार-श्रमण' शिष्य थे । वे अवधि-ज्ञान और श्रुत-ज्ञान से प्रबुद्ध थे । शिष्य-संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए । नगर के निकट तिन्दुक उद्यान में, जहाँ प्रासुक निर्दोष शय्या और संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए ।
. [८५१-८५४] उसी समय धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक, जिन, भगवान् वर्द्धमान थे, जो समग्र लोक में प्रख्यात थे । उन लोक-प्रदीप भगवान् वर्द्धमान के विद्या और चारित्र के पारगामी, महान् यशस्वी भगवान् गौतम शिष्य थे । बारह अंगों के वेत्ता, प्रबुद्ध गौतम भी शिष्य-संघ से परिवृत ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए । नगर के निकट कोष्ठक-उद्यान में, जहाँ प्रासुक शय्या, एवं संस्तारक सुलभ थे, ठहर गए ।
[८५५] कुमारश्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम-दोनों वहाँ विचरते थे । दोनों ही आलीन और सुसमाहित थे ।
[८५६-८५९] संयत, तपस्वी, गुणवान् और षट्काय के संरक्षक दोनों शिष्य-संघों में यह चिन्तन उत्पन्न हआ-“यह कैसा धर्म है ? और यह कैसा धर्म है ? आचार धर्म की प्रणिधि-यह कैसी है और यह कैसी है ?" - "यह चातुर्याम धर्म है, इसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्वनाथ ने किया है । और यह पंच-शिक्षात्मक धर्म है, इसका महामुनि वर्द्धमान ने प्रतिपादन किया है ।" - "यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म पार्श्वनाथ ने प्ररूपित किया है । एक ही लक्ष्य से प्रवृत्त दोनों में इस विशेष भेद का क्या कारण है ?"
[८६०] केशी और गौतम दोनों ने ही शिष्यों के प्रवितर्कित–को जानकर परस्पर मिलने का विचार किया ।
[८६१-८६३] केशी श्रमण के कुल को जेष्ठ कुल जानकर प्रतिरूपज्ञ गौतम शिष्य