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उत्तराध्ययन-१९/६७०
गिराया गया हूँ ।”
[६७१-६७२] –“पापकर्मों से घिरा हुआ पराधीन मैं अग्नि की चिताओं में भैंसे की भाँति जलाया और पकाया गया हूँ ।" "लोहे के समान कठोर संडासी जैसी चोंच वाले ढंक और गीध पक्षियों द्वारा, मैं रोता- विलखाता हठात् अनन्त बार नोचा गया हूँ ।"
[६७३-६७४] –“प्यास से व्याकुल होकर, दौड़ता हुआ मैं वैतरणी नदी पर पहुँचा । 'जल पीऊँगा' - यह सोच ही रहा था कि छुरे की धार जैसी तीक्ष्ण जलधारा से मैं चीरा गया । " - " गर्मी से संतप्त होकर मैं छाया के लिए असि पत्र महावन में गया । किन्तु वहाँ ऊपर से गिरते हु असिपत्रों से- तलवार के समान तीक्ष्ण पत्तों से अनेक बार छेदा गया ।" [६७५] - "सब ओर से निराश हुए मेरे शरीर को मुद्गरों, मुसुण्डियों, शूलों और मुसलों से चूर-चूर किया गया । इस प्रकार मैंने अनन्त बार दुःख पाया है ।"
[६७६ ] – “पाशों और कूट जालों से विवश बने मृग की भाँति मैं भी अनेक बार छलपूर्वक पकड़ा गया हूँ, बाँधा गया हूँ, रोका गया हूँ और विनष्ट किया गया हूँ ।"
[६७८-६७९] – “गलों से तथा मगरों को पकड़ने के जालों से मत्स्य की तरह विवश मैं अनन्त बार खींचा गया, फाड़ा गया, पकडा गया और मारा गया ।" "बाज पक्षियों, जालों तथा वज्रलेपों के द्वारा पक्षी की भाँति मैं अनन्त बार पकड़ा गया, चिपकाया गया, बाँधा गया और मारा गया ।"
[६८०-६८१] – “बढ़ई के द्वारा वृक्ष की तरह कुल्हाडी और फरसा आदि से मैं अनन्त बार कूटा गया हूँ, फाड़ा गया हूँ, छेदा गया हूँ, और छीला गया हूँ ।" - " लुहारों के द्वारा लोहे की भाँति मैं परमाधर्मी असुर कुमारों के द्वारा चपत और मुक्का आदि से अनन्त बार पीटा गया, कूटा गया, खण्ड-खण्ड किया गया और चूर्ण बना दिया गया ।"
[६८२] – 'भयंकर आक्रन्द करते हुए भी मुझे कलकलाता गर्म ताँबा, लोहा, रांगा और सीसा पिलाया गया ।"
[६८३-६८४] –“ तुझे टुकड़े-टुकड़े किया हुआ और शूल में पिरो कर पकाया गया मांस प्रथा - यह याद दिलाकर मुझे मेरे ही शरीर का मांस काटकर और उसे तपा कर अनेक बार खिलाया गया ।" "तुझे सुरा, सीधू, मैरेय और मधु आदि मदिराएँ प्रिय थी - यह याद दिलाकर मुझे जलती हुई चर्बी और खून पिलाया गया ।”
[६८५-६८६] "मैंने नित्य ही भयभीत, संत्रस्त, दुःखित और व्यथित रहते हुए अत्यन्त दुःखपूर्ण वेदना का अनुभव किया ।" - " तीव्र, प्रचण्ड, प्रगाढ, घोर, अत्यन्त दुःसह, महाभयंकर और भीष्म वेदनाओं का मैंने नरक में अनुभव किया है ।"
[ ६८७] - "हे पिता ! मनुष्य-लोक में जैसी वेदनाएँ देखी जाती हैं, उनसे अनन्त गुण अधिक दुःख-वेदनाएँ नरक में हैं ।"
[ ६८८] - " मैंने सभी जन्मों में दुःख-रूप वेदना का अनुभव किया है । एक क्षण के अन्तर जितनी भी सुखरूप वेदना ( अनुभूति) वहाँ नहीं है ।"
[६८९] माता-पिता ने उससे कहा - " पुत्र ! अपनी इच्छानुसार तुम भले ही संयम स्वीकार करो । किन्तु विशेष बात यह है कि - श्रामण्य-जीवन में निष्प्रतिकर्मता कष्ट है ।”
[६९०] - "माता-पिता ! आपने जो कहा वह सत्य है । किन्तु जंगलों में रहनेवाले