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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज होकर सिद्ध होता है ।" ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन- १९ - मृगापुत्रीय
[६१४-६१६] कानन और उद्यानों से सुशोभित 'सुग्रीव' नामक सुरम्य नगर में बलभद्र राजा था । मृगा, पटरानी थी । 'बलश्री' नाम का पुत्र था, जो कि 'मृगापुत्र' नाम से प्रसिद्ध था । माता-पिता को प्रिय था । युवराज था और दमीश्वर था । प्रसन्न - चित्त से सदा नन्दन प्रासाद में दोगुन्दग देवों की तरह स्त्रियों के साथ क्रीडा करता था ।
[६१७-६२२] एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जडित कुट्टिमतल वाले प्रासाद गवाक्ष में खड़ा था । नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था । उसने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, नियम एवं संयम के धारक, शील से समृद्ध तथा गुणों के आकार एक संयत श्रमण को देखा । वह उस को अनिमेष - दृष्टि से देखता है और सोचता है- " मैं मानता हूँ कि ऐसा रूप मैंने इसके पूर्व भी कहीं देखा है ।" साधु के दर्शन तथा तदनन्तर पवित्र अध्यवसाय के होने पर, 'मैंने ऐसा कहीं देखा है - इस प्रकार ऊहापोह को प्राप्त मृगापुत्र को जाति-स्मरण उत्पन्न हुआ । संज्ञिज्ञान होने पर वह पूर्व - जाति को स्मरण करता है"देवलोक से च्युत होकर मैं मनुष्यभव में आया हूँ ।" जाति - स्मरण उत्पन्न होने पर महर्द्धिक मृगापुत्र अपनी पूर्व-जाति और पूर्वाचरित श्रामण्य को स्मरण करता है ।
[६२३] विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त मृगापुत्र ने माता-पिता के समीप
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आकर इस प्रकार कहा
[६२४] –“मैंने पंच महाव्रतों को सुना है । सुना है नरक और तिर्यंच योनि में दुःख है । मैं संसाररूप महासागर से निर्विण्ण हो गया हूँ । मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा । माता ! मुझे अनुमति दीजिए ।"
[६२५] “मैं भोगों को भोग चुका हूँ, वे विषफल के समान अन्त में कटु विपाक वाले और निरन्तर दुःख देने वाले हैं ।”
[६२६-६२८] –“यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, अशुचि से पैदा हुआ है, यहाँ का आवास अशाश्वत है, तथा दुःख और क्लेश का स्थान है ।" " - इसे पहले या बाद में, कभी छोड़ना ही है । यह पानी के बुलबुले के समान अनित्य है । अतः इस शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल पा रहा है ।" - " व्याधि और रोगों के घर तथा जरा और मरण से ग्रस्त इस असार मनुष्यशरीर में एक क्षण भी मुझे सुख नहीं मिल रहा है ।"
[ ६२९] – “जन्म दुःख है । जरा दुःख है । रोग दुःख है । मरण दुःख है । अहो ! यह समग्र संसार ही दुःखरूप है, जहाँ जीव क्लेश पते हैं ।"
[६३०] – “क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, पुत्र, स्त्री, बन्धुजन और इस शरीर को छोड़कर एक दिन विवश होकर मुझे चले जाना है ।"
[ ६३१] - जिस प्रकार विष-रूप किम्पाक फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता है, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता ।”
[६३२-६३३] – “जो व्यक्ति पाथेय लिए बिना लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह चलते हुए भूख और प्यास से पीड़ित होता है ।" "इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म किए बिना परभव