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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
करता है, वह निर्ग्रन्थ है ।
[५१३] जो स्त्रियों की कथा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? आचार्य कहते हैं - जो स्त्रियों की कथा करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है । अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों की कथा न करे ।
[५१४] जो स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? - जो स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठता है, उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका होती है, यावत् केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है । अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे ।
[५१५] जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता है और उनके विषय में चिन्तन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंको होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । इसलिए निर्ग्रन्थ यावत् विषय में चिन्तन करे ।
[५१६] जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से परदे के अन्तर से अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, स्तनित, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से परदे के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न सुने ।
[५१७] जो संयमग्रहण से पूर्व को रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका. कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली -प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ संयम ग्रहण से पूर्व की रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न करे ।
[५१८] जो प्रणीत अर्थात् रसयुक्त पौष्टिक आहार नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली - प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ प्रणीत आहार न करे ।
[५१९] जो परिमाण से अधिक नहीं खाता-पीता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् वह केवल प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक न खाए, न पीए ।
[५२०] जो शरीर की विभूषा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? वह शरीर को सजाता है, फलतः उसे स्त्रियाँ चाहती हैं । अतः स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने ।