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उत्तराध्ययन-१६/५२१
[५२१] जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ शबद, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने । यह ब्रह्मचर्य समाधि का दसवाँ स्थान है । यहाँ कुछ श्लोक है, जैसे
[५२२] ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए संयमी एकान्त, अनाकीर्ण र स्त्रियों से रहित स्थान में रहे ।
[५२३-५२४] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का त्याग करे । स्त्रियों के साथ परिचय तथा बार-बार वार्तालाप का सदा परित्याग करे ।
[५२५-५२६] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चक्षु-इन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान, बोलने की सुन्दर मुद्रा तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे । श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने । .
[५२७] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, दीक्षा से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचिन्तन न करे ।
[५२८-५२९] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत आहार का सदा-सदा परित्याग करे । चित्त की स्थिरता के लिए, जीवन-यात्रा के लिए उचित समय में धर्म-मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक ग्रहण न करे ।
[५३०-५३१] ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, विभूषा का त्याग करे । श्रृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे । शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे ।
[५३२-५३५] स्त्रियों से आकीर्ण स्थान, मनोरम स्त्री-कथा, स्त्रियों का परिचय, उनकी इन्द्रियों को देखना, उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्ययुक्त शब्दों का सुनना, भुक्त भोगों
और सहावस्थान को स्मरण करना, प्रणीत भोजन-पान, मात्रा से अधिक भोजन पान, शरीर को सजाने की इच्छा, दुर्जय काम भोग-ये दस आत्मगवेषक मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान है । एकाग्रचित्त वाला मुनि दुर्जय कामभोगों का सदैव त्याग करे और सब प्रकार के शंका-स्थानों से दूर रहे ।
[५३६] जो धैर्यवान है, धर्मरथ का चालक सारथि है, धर्म के आराम में रत है, दान्त है, ब्रह्मचर्य में सुसमाहित है, वह भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करता है ।
[५३७] जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर-सभी नमस्कार करते हैं ।
[५३८] यह ब्रह्मचर्य-धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है । इस धर्म के द्वारा अनेक साधक सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, और भविष्य में भी होगे | -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण