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उत्तराध्ययन-१५/५०४
[५०४] जो व्यक्ति प्रव्रजित होने के बाद अथवा जो प्रव्रजित होने से पहले के परिचित हों, उनके साथ इस लोक के फल की प्राप्ति हेतु जो संस्तव नहीं करता है, वह भिक्षु है ।
[५०५] शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य एवं स्वाद्य कोई स्वयं न दे अथवा माँगने पर भी इन्कार कर दे तो जो निर्ग्रन्थ उनके प्रति द्वेष नहीं रखता है, वह भिक्षु है ।
[५०६] गृहस्थों से विविध प्रकार के अशनपान एवं खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो मनवचन-काया से अनुकंपा नहीं करता है, अपितु मन, वचन और काया से पूर्ण संवृत रहता है, वह भिक्षु है ।
५०७] ओसामन, जौ से बना भोजन, ठंडा भोजन, कांजी का पानी, जौ का पानीजैसे नीरस भिक्षा की जो निंदा नहीं करता है, अपितु भिक्षा के लिए साधारण घरों में जाता है, वह भिक्षु है ।
[५०८] संसार में देवता, मनुष्य और तिर्यंचों के जो अनेकविध रौद्र, अति भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो डरता नहीं है, वह भिक्षु है ।
५०९] लोकप्रचलित विविध धर्मविषयक वादों को जानकर भी जो ज्ञान दर्शनादि स्वधर्म में स्थित रहता है, कर्मों को क्षीण करने में लगा है, शास्त्रों का परमार्थ प्राप्त है, प्राज्ञ है, परीषहों को जीतता है, सब जीवों के प्रति समदर्शी और उपशान्त है, किसी को अपमानित नहीं करता है, वह भिक्षु है ।।
[५१०] जो शिल्पजीवी नहीं है, जिसका अगृही है, अमित्र हैं, जितेन्द्रिय है, परिग्रह से मुक्त है, अणुकषायी है नीरस और परिमित आहार लेता है, गृहवास छोड़कर एकाकी विचरण करता है, वह भिक्षु है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-१५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-१६-ब्रह्मचर्य समाधि स्थान) [५११] आयुष्यमन् ! भगवान् ने ऐसा कहा है । स्थविर भगवन्तों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन में दस ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान बतलाए हैं जिन्हें सुन कर, जिनके अर्थ का निर्णय कर भिक्षु संयम, संवर तथा समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न हो-गुप्त हो, इन्द्रियों को वश में रखे-ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे ।
[५१२] स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य-समाधि के वे कौनसे स्थान बतलाए हैं ? स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य-समाधि के ये दस स्थान बतलाए हैं-जो विविक्त शयन और आसन का सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ है । जो स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का सेवन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? आचार्य कहते हैं-जो स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन सेवन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है या ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, या उन्माद पैदा होता है, दीर्धकालिक रोग और आतंक होता है, या वह केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है । अतः स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का जो सेवन नहीं
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