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उत्तराध्ययन-१४/४७६
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अनुगमन करूं ?" - "रोहित मत्स्य जैसे कमजोर जाल को काटकर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही धारण किए हुए गुरुतर संयमभार को वहन करने वाले प्रधान तपस्वी धीर साधक कामगुणों को छोड़कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं ।"
[४७७-४७८] पुरोहित-पत्नी-"जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा प्रसारित जालों को काटकर आकाश में स्वतन्त्र उड जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति भी छोड़कर जा रहे हैं । मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करूं ?" - "पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहित ने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण किया है" - यह सुनकर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ धनसंपत्ति की चाह रखने वाले राजा को रानी कमलावती ने कहा
[४७९-४८०] रानी कमलावती-“तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को ग्रहण करने की इच्छा रखते हो । राजन् ! वमन को खाने वाला पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता है ।" - “सारा जगत् और जगत् का समस्त धन भी यदि तुम्हारा हो जाय, तो भी वह तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा । और वह धन तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेगा ।"
[४८१-४८२] –“राजन् ! एक दिन इन मनोज्ञ काम गुणों को छोड़कर जब मरोगे, तब एक धर्म ही संरक्षक होगा । यहां धर्म के अतिरिक्त और कोई रक्षा करने वाला नहीं है ।" -“पक्षिणी जैसे पिंजरे में सुख का अनुभव नहीं करती है, वैसे ही मुझे भी यहाँ आनन्द नहीं है । मैं स्नेह के बंधनो को तोड़कर अकिंचन, सरल, निरासक्त, परिग्रह और हिंसा से निवृत्त होकर मुनि धर्म का आचरण करूंगी ।" ।
४८३-४८४] –“जैसे कि वन में लगे दावानल में जन्तुओं को जलते देख रागद्वेष के कारण अन्य जीव प्रमुदित होते हैं ।” – “उसी प्रकार कामभोगों में मूर्च्छित हम मूढ लोग भी राग द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं ।" ।
[४८५] -“आत्मवान् साधक भोगों को भोगकर और यथावसर उन्हें त्यागकर वायु की तरह अप्रतिबद्ध होकर विचरण करते हैं । अपनी इच्छानुसार विचरण करनेवाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतन्त्र विहार करते हैं ।"
[४८६] -"आर्य ! हमारे हस्तगत हुए ये कामभोग, जिन्हें हमने नियन्त्रित समझ रखा है, वस्तुतः क्षणिक हैं । अभी हम कामनाओं में आसक्त हैं, किन्तु जैसे कि पुरोहित-परिवार बन्धनमुक्त हुआ , वैसे ही हम भी होंगे ।'
[४८७-४८९] -“जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है, उसी पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं । जिसके पास मांस नहीं होता है, उस पर नहीं झपटते हैं । अतः मैं भी मांसोपम सब कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण करूंगी ।" - "संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गीध के समान जानकर, उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिए, जैसे कि गरुड़ के समीप सांप ।" - "बन्धन को तोड़कर जैसे हाथी अपने निवास स्थान में चला जाता है, वैसे ही हमें भी अपने वास्तविक स्थान में चलना चाहिए । हे महाराज इषुकार ! यही एक मात्र श्रेयस्कर है, ऐसा मैंने ज्ञानियों से सुना है ।"
[४९०-४९१] विशाल राज्य को छोड़कर, दुस्त्यज कामभोगों का परित्याग कर, वे राजा और रानी भी निर्विषय, निरामिष, निःस्नेह और निष्परिग्रह हो गए । धर्म को सम्यक रूप से जानकर, फलतः उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़कर, दोनों ही यथोपदिष्ट घोर तप को