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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
कहते ।' “कुश, यूप, तृण, काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रातः और संध्या में जल का स्पर्श-इस प्रकार तुम मन्द-बुद्धि लोग, प्राणियों और भूत जीवों का विनाश करते हुए पापकर्म कर रहे हो ।"
[३९९] “हे भिक्षु ! हम कैसे प्रवृत्ति करें ? कैसे यज्ञ करें ? कैसे पाप कर्मों को दूर करें ? हे यक्षपूजित संयत ! हमें बताएँ कि तत्त्वज्ञ पुरुष श्रेष्ठ यज्ञ कौन-सा बताते हैं ?"
[४००-४०१] मुनि-“मन और इन्द्रियों को संयमित रखने वाले मुनि पृथ्वी आदि छह जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते हैं, असत्य नहीं बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं; परिग्रह, स्त्री, मान और माया को स्वरूपतः जानकर एवं छोड़कर विचरण करते हैं ।" -"जो पांच संवरों से पूर्णतया संवृत होते हैं, जीवन की आकांक्षा नहीं करते, शरीर का परित्याग करते हैं, पवित्र हैं, विदेह हैं, वे वासनाओं पर विजय पाने वाला महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं ।"
[४०२] “हे भिक्षु ! तुम्हारी ज्योति कौनसी है ? ज्योति स्थान कौनसा है ? घृतादिप्रक्षेपक कड़छी क्या है ? अग्नि को प्रदीत करनेवाले कण्डे कौनसे हैं ? तुम्हारा ईंधन और शांतिपाठ कौन-सा है ? किस होम से आप ज्योति को प्रज्वलित करते हैं ?"
[४०३] मुनि-“तप ज्योति है । जीव-आत्मा ज्योति का स्थान है । मन, वचन और काया का योग कड़छी है । शरीर कण्डे हैं । कर्म ईन्धन है । संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है । ऐसा मैं प्रशस्त यज्ञ करता हूँ ।"
[४०४] - "हे यक्षपूजित संयत ! हमें बताइए कि तुम्हारा द्रह कौनसा है ? शांतितीर्थ कौनसे हैं ? कहाँ स्नान कर रज दूर करते हो ? हम आपसे जानना चाहते हैं ?"
[४०५-४०६] मुनि-“आत्मभाव की प्रसन्नतारूप अकलुष लेश्यावाला धर्म मेरा हृद है, जहाँ स्नानकर मैं विमल, विशुद्ध एवं शान्त होकर कर्मरज को दूर करता हूँ ।" "कुशल पुरुषों ने इसे ही स्नान कहा है । ऋषियों के लिए यह महान् स्नान ही प्रशस्त है । इस धर्महद में स्नान करके महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तम स्थान को प्राप्त हुए हैं ।" -ऐसा मैं कहता हूँ।
(अध्ययन-१३-चित्रसम्भूतीय) [४०७] जाति से पराजित संभूत मुनि ने हस्तिनापुर में चक्रवर्ती होने का निदान किया था । वहाँ से मरकर वह पद्मगुल्म विमान में देव बना । फिर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में चुलनी की कुक्षि से जन्म लिया ।
[४०८] सम्भूत काम्पिल्य नगर में और चित्र पुरिमताल नगर में, विशाल श्रेष्ठिकुल में, उत्पन्न हुआ । और वह धर्म सुनकर प्रव्रजित हो गया ।
[४०९] काम्पिल्य नगर में चित्र और सम्भूत दोनों मिले । उन्होंने परस्पर सुख और दुःख रूप कर्मफल के विपाक के सम्बन्ध में बातचीत की ।
[४१०] महान् ऋद्धिसंपन्न एवं महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने अतीव आदर के साथ अपने भाई को इस प्रकार कहा
[४११-४१३] "इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, अनुरक्त और हितैषी भाई-भाई थे ।' – “हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत-गंगा के किनारे हंस