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उत्तराध्ययन-७/१८५
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सुरा और मांस का उपभोगी बलवान्, दूसरों को सताने वाला-बकरे की तरह कर-कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खानेवाला, मोटी तोंद और अधिक रक्तवाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, जैसे कि मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है ।।
[१८६-१८७] आसन, शय्या, वाहन, धन और अन्य कामभोगों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किए धन को छोड़कर, कर्मों की बहुत धूल संचित कर-केवल वर्तमान को ही देखने में तत्पर, कर्मों से भारी हुआ जीव मृत्यु के समय वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है ।
[१८८] नाना प्रकार से हिंसा करनेवाले अज्ञानी जीव आयु के क्षीण होने पर जब शरीर छोड़ते हैं तो वे कृत कर्मों से विवश अंधकाराच्छन्न नरक की ओर जाते हैं ।
[१८९-१९१] एक क्षुद्र काकिणी के लिए जैसे मूढ मनुष्य हजार गँवा देता है और राजा एक अपथ्य आम्रफल खाकर बदले में जैसे राज्य को खो देता है । इसी प्रकार देवताओं के कामभोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग नगण्य हैं । मनुष्य की अपेक्षा देवताओं की आयु और कामभोग हजार गुणा अधिक हैं । "प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक युत वर्ष की स्थिति होती है" यह जानकर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष से भी कम आयुकाल में उन दिव्य सुखों को गँवा रहे हैं ।
[१९२-१९४] तीन वणिक मूल धन लेकर व्यापार को निकले । उनमें से एक अतिरिक्त लाभ प्राप्त करता है । एक सिर्फ मूल ही लेकर लौटता है । और एक मूल भी गंवाकर आता है । यह व्यवहार की उपमा है । इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना । मनुष्यत्व मूल धन है । देवगति लाभरूप है । मूल के नाश से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है ।
[१९५-१९७] अज्ञानी जीव की दो गति हैं-नरक और तिर्यंच । वहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है । क्योंकि वह लोलुपता और वंचकता के कारण देवत्व और मनुष्यत्व कों पहले ही हार चुका होता है । नरक और तिर्यंच-रूप दो दुर्गति को प्राप्त अज्ञानी जीव देव
और मनुष्य गति को सदा ही हारे हुए हैं । क्योंकि भविष्य में उनका दीर्घ काल तक वहां से निकलना दुर्लभ है । इस प्रकार हारे हुए बालजीवों को देखकर तथा वाल एवं पंडित की तुलना कर जो मानुषी योनि में आते हैं, वे मूलधन के साथ लौटे वणिक् की तरह हैं ।
[१९८-२००] जो मनुष्य विविध परिमाणवाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुपी योनि में उत्पन्न होते हैं । क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं जिनकी शिक्षा विविध परिमाण वाली व्यापक है, जो घर में रहते हुए भी शील से सम्पन्न एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़कर देवत्व को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार दैन्यरहित पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ को लाभान्वित जानकर कैसे कोई विवेकी पुरुष उक्त लाभ को हारेगा ? और हारता हुआ कैसे संवेदन नहीं करेगा ?
२०१-२०५] देवताओं के काम-भोग की तुलना में मनुष्य के काम-भोग वैसे ही क्षुद्र हैं, जैसे समुद्र की तुलना में कुश के अग्रभाग पर टिका हुआ जलबिन्दु । मनुष्यभव की इस अत्यल्प आयु में कामभोग कुशाग्र पर स्थित जलबिन्दु-मात्र हैं, फिर भी अज्ञानी किस हेतु से अपने लाभकारी योग-क्षेमकों नहीं समझता ? मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त न