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उत्तराध्ययन- ८/२२०
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[२२०] भिक्षु जीवन-यापन के लिए प्रायः नीरस, शीत, पुराने कुल्माष, सारहीन, रूखा और मंथुबेर आदि का चूर्ण ही भिक्षा में ग्रहण करता है ।
[२२१] "जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता है" - ऐसा आचार्यों ने कहा है ।
[२२२-२२३] जो वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त असुरकाय में उत्पन्न होते हैं । वहां से निकल कर भी वे संसार में बहुत काल तक परिभ्रमण करते हैं । बहुत अधिक कर्मों से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधि धर्म की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है ।
[२२४-२२५] धन-धान्य आदि से प्रतिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक को दे दिया जाए, तो भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा । इतनी दुष्पूर है यह लोभाभिभूत आत्मा । जैसे लाभ होता है, वैसे लोभ होता है । लाभ से लोभ बढ़ता जाता है । दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी पूरा नहीं हो सका
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[२२६-२२७] जिनके हृदय में कपट है अथवा जो वक्ष में फोड़े के रूप स्तनोंवाली हैं, जो अनेक कामनाओंवाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन मैं फँसा कर उसे दास की भाँति नचाती हैं, ऐस राक्षसी स्वरूप साधनाविद्या तक स्त्रियों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो । भिक्षु धर्म को पेशल जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थापित करे ।
[२२८] विशुद्ध प्रज्ञावाले कपिल मुनि ने इस प्रकार धर्म कहा है । जो इसकी सम्यक् आराधना करेंगे, वे संसारसमुद्र को पार करेंगे । उनके द्वारा ही दोनों लोक आराधित होंगे । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ९ - नमिप्रव्रज्या
[२२९-२३०] देवलोक से आकर नमि के जीव ने मनुष्य लोक में जन्म लिया । उसका मोह उपशान्त हुआ, तो उसे पूर्व जन्म का स्मरण हुआ । स्मरण करके अनुत्तर धर्म में स्वयं संबुद्ध बने । राज्य का भार पुत्र को सौंपकर उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया । [२३१] नमिराजा श्रेष्ठ अन्तःपुर में रह कर, देवलोक के भोगों के समान सुन्दर भोगों को भोगकर एक दिन प्रबुद्ध हुए और उन्होंने भोगों का परित्याग किया ।
[२३२] भगवान् नमि ने पुर और जनपदसहित अपनी राजधानी मिथिला, सेना, अन्तःपुर और समग्र परिजनों को छोड़कर अभिनिष्क्रमण किया और एकान्तवासी बने ।
[२३३] जिस समय राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो रहे थे, उस समय मिथिला में बहुत कोलाहल हुआ था ।
[२३४-२३५] उत्तम प्रव्रज्या - स्थान के लिए प्रस्तुत हुए नमि राजर्षि को ब्राह्मण के रूप में आए हुए देवेन्द्र ने कहा - "हे राजर्षि ! आज मिथिला नगरी में, प्रासादों में और घरों में कोलाहल पूर्ण दारुण शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं ?"
[२३६-२३८] देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को कहा - " मिथिला एक चैत्य वृक्ष था । जो शीतल छायावाला, मनोरम, पत्र
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