________________
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्राप्त करेंगे । इस प्रकार स्तुति करते हुए इन्द्र ने, उत्तम श्रद्धा से, राजर्षि को प्रदक्षिणा करते हुए, अनेक बार वन्दना की । इसके पश्चात् नमि मुनिवर के चक्र और अंकुश के लक्षणों से युक्त चरणों की वन्दना करके ललित एवं चपल कुण्डल और मुकुट को धारण करने वाला इन्द्र ऊपर आकाश मार्ग से चला गया ।
[२८९] नमिराजर्षि ने आत्मभावना से अपने को विनत किया । साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी गृह और वैदेही की राज्यलक्ष्मी को त्याग कर श्रामण्यभाव में सुस्थिर रहे ।
[२९०] संबुद्ध, पण्डित और विचक्षण पुरुष इसी प्रकार भोगों से निवृत्त होते हैं, जैसे कि नमि राजर्षि । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
( अध्ययन-१०-द्रुमपत्रक [२९१] गौतम ! जैसे समय बीतने पर वृक्ष का सूखा हुआ सफेद पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन है । अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
[२९२] कुश-डाभ के अग्र भाग पर टिके हुए ओस के बिन्दु की तरह मनुष्य का जीवन क्षणिक है । इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
[२९३] अल्पकालीन आयुष्य में, विघ्नों से प्रतिहत जीवन में ही पूर्वसंचित कर्मरज को दूर करना है, गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
[२९४] विश्व के सब प्राणियों को चिरकाल में भी मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है। कर्मों का विपाक तीव्र है । इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
[२९५-२९९]पृथ्वीकाय में, अपकाय में, तेजस् काय में, वायुकाय में असंख्यात काल तक रहता है । अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर । और वनस्पतिकाय में गया हुआ जीव उत्कर्षतः दुःख से समाप्त होने वाले अनन्त काल तक रहता है । अतः गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर ।
[३००-३०२] द्वीन्द्रिय...त्रीन्द्रिय में...और चतुरिन्द्रय में गया हुआ जीव उत्कर्षतः संख्यात काल तक रहता है । इसलिए गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर ।
[३०३] पंचेन्द्रिय काय में गया हुआ जीव उत्कर्षतः सात आठ भव तक रहता है । इसलिए गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।।
[३०४] देव और नरक योनि में गया हुआ जीव उत्कर्षतः एक-एक भव ग्रहण करता है । अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
[३०५] प्रमादबहुल जीव शुभाशुभ कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करता है । इसलिए गौतम ! क्षण भर का भी प्रमाद मत कर ।
[३०६-३१०] दुर्लभ मनुष्य जीवन पाकर भी आर्यत्व पाना दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी बहुत से लोग दस्यु और म्लेच्छ होते है । आर्यत्व की प्राप्ति होने पर भी अविकल पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति दुर्लभ है । बहुत से जीवों को विकलन्द्रियत्व भी देखा जाता है ।
अविकल पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति होने पर भी श्रेष्ठ धर्म का श्रवण पुनः दुर्लभ है । कुतीर्थिकों की उपासना करनेवाले भी देखे जाते हैं । उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना दुर्लभ