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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
पुष्प एवं फलों से युक्त, बहुतों के लिए सदैव बहुत उपकारक था - प्रचण्ड आंधी से उस मनोरम वृक्ष के गिर जाने पर दुःखित, अशरण और आर्त ये पक्षी क्रन्दन कर रहे हैं ।"
[२३९-२४०] राजर्षि के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा—-‘“यह अग्नि है, यह वायु है और इनसे यह आपका राजभवन जल रहा है । भगवन् ! आप अपने अन्तःपुर की ओर क्यों नहीं देखते ?"
[२४१-२४४] देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राज ने कहा - "जिनके पास अपना जैसा कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं । मिथिला के जलने में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है-पुत्र, पत्नी और गृह - व्यापार मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय - 'सब ओर से मैं अकेला ही हूं' - इस प्रकार एकान्तद्रष्टा - गृहत्यागी मुनि को सब प्रकार से सुख ही सुख है ।"
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[२४५ - २४६] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा- "हे क्षत्रिय ! पहले तुम नगर का परकोटा, गोपुर, अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतघ्नी-बनाकर फिर जाना, प्रव्रजित होना ।"
[२४७- २५०] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा" श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा को मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से सुरक्षित, एवं अजेय मजबूत प्राकार बनाकर - पराक्रम को धनुष, ईर्या समिति को उसकी डोर, धृति को उसकी मूठ बनाकर, सत्य से उसे बांधकर तप के बाणों से युक्त धनुष से कर्म-रूपी कवच को भेदकर अन्तर्युद्ध का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है ।"
[२५१-२५२] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा- ' क्षत्रिय ! पहले तुम प्रासाद, वर्धमान गृह, चन्द्रशालाएँ बनाकर फिर जाना ।
[२५३-२५४] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा" जो मार्ग में घर बनाता है, वह अपने को संशय में डालता है, अतः जहाँ जाने की इच्छा हो वहीं अपना स्थायी घर बनाना चाहिए ।”
[२५५-२५६ ] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा- "हे क्षत्रिय ! पहले तुम बटमारों, प्राणघातक डाकुओं, गांठ काटने वालों और चोरों से नगर की रक्षा करके फिर जाना ।”
[२५७-२५८] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा"इस लोक में मनुष्यों के द्वारा अनेक बार मिथ्या दण्ड का प्रयोग किया जाता है । अपराध न करनेवाले निर्दोष पकड़े जाते हैं और सही अपराधी छूट जाते हैं ।"
[२५९-२६०] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा - ' "हे क्षत्रिय ! जो राजा अभी तुम्हें नमते नहीं हैं, पहले उन्हें अपने वश में करके फिर जाना ।
[२६१-२६४] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा" जो दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है - बाहर के युद्धों से क्या ? स्वयं अपने ही युद्ध करो । अपने से अपने को जीकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है-पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन - ये ही वास्तव में दुर्जेय हैं । एक अपने आप को जीत लेने पर सभी