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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
होनेवाले का आत्मार्थ विनष्ट हो जाता है । क्योंकि वह सन्मार्ग को बार-बार सुनकर भी उसे छोड देता है । मनुष्य भव में काम भोगों से निवृत्त होनेवाले का आत्म-प्रयोजन नष्ट नहीं होता है । वह पूतिदेह-के छोड़ने पर देव होता है-ऐसा मैंने सुना है । देवलोक से आकर वह जीव जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, आयु और सुख होते हैं, उस मनुष्य-कुल में उत्पन्न होता है ।
[२०६] बालजीव की अज्ञानता तो देखो । वह अधर्म को ग्रहण कर एवं धर्म को छोड़कर अधर्मिष्ठ बनता है और नरक में उत्पन्न होता है ।
२०७] सब धर्मों का अनुवर्तन करने वाले धीर पुरुष का धैर्य देखो । वह अधर्म को छोड़कर धर्मिष्ठ बनता है और देवों में उत्पन्न होता है ।
[२०८] पण्डित मुनि बालभाव और अबाल भाव की तुलना करके बाल भाव को छोड़ कर अबाल भाव को स्वीकारता है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
( अध्ययन-८-कापिलीय) [२०९] अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में वह कौनसा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ ?
[२१०] पूर्व सम्बन्धों को एक बार छोड़कर फिर किसी पर भी स्नेह न करे । स्नेह करनेवालों के साथ भी स्नेह न करने वाला भिक्षु सभी प्रकार के दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है ।
[२११-२१४] केवलज्ञान और केवलदर्शन से सम्पन्न तथा मोहमुक्त कपिल मुनि ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा मुक्ति के लिए कहा-मुनि कर्मबन्धन के हेतुस्वरूप सभी प्रकार के ग्रन्थ तथा कलह का त्याग करे । काम भोगों के सब प्रकारों दोष देखता हुआ आत्मरक्षक मुनि उनमें लिप्त न हो । आसक्तिजनक आमिषरूप भोगों में निमग्न, हित और निश्रेयस में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञ, मन्द और मूढ जीव कर्मों से वैसे ही बंध जाता है, जैसे श्लेष्म-में मक्खी । कामभोगों का त्याग दुष्कर है, अधीर पुरुषों के द्वारा कामभोग आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं, जैसे वणिक समुद्र को ।
[२१५] 'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए भी कुछ पशु की भांति अज्ञानी जीव प्राणवध को नहीं समझते हैं । वे मन्द और अज्ञानी पापदृष्टियों के कारण नरक में जाते हैं।
[२१६] जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है-"जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं होता ।
२१७] जो जीवों की हिंसा नहीं करता, वह साधक ‘समित' कहा जाता है । उसके जीवन में से पाप-कर्म वैसे ही निकल जाता है, जैसे ऊँचे स्थान से जल ।
[२१८] संसार में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन, कायरूप किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे ।
[२१९] शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनमें अपने आप को स्थापित करेभिक्षाजीवी मुनि संयमयात्रा के लिए आहार की एषणा करे, किन्तु रसों में मूर्छित न बने ।