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उत्तराध्ययन- ५/१५२
देवलोक में जाता है ।
[१५३] संयमी भिक्षु की दोनों में से एक स्थिति होती है या तो वह सदा के लिए सब दुःखों से मुक्त होता है अथवा महान् ऋद्धिवाला देव होता है ।
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[१५४-१५५] देवताओं के आवास अनुक्रम से ऊर्ध्व, मोहरहित, द्युतिमान् तथा देवों से परिव्याप्त होते हैं । उनमें रहने वाले देव यशस्वी - दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और अभी-अभी उत्पन्न हुए हों, ऐसी भव्य कांति वाले एवं सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी होते हैं ।
[१५६ ] भिक्षु हो या गृहस्थ, जो हिंसा आदि से निवृत्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास कर उक्त देव लोकों में जाते हैं ।
[१५७] सत्पुरुषों के द्वारा पूजनीय उन संयत और जितेन्द्रिय आत्माओं के उक्त वृत्तान्त को सुनकर शीलवान् बहुश्रुत साधक मृत्यु के समय में भी संत्रस्त नहीं होते हैं । [१५८] बालमरण और पंडितमरण की परस्पर तुलना करके मेधावी साधक विशिष्ट सकाम मरण को स्वीकार करे, और मरण काल में दया धर्म एवं क्षमा से पवित्र तथाभूत आत्मा से प्रसन्न रहे ।
[१५९-१६०] जब मरण-काल आए, तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की थी, तदनुसार ही भिक्षु गुरु के समीप पीडाजन्य लोमहर्ष को दूर करे तथा शान्तिभाव से शरीर के भेद की प्रतीक्षा करे । मृत्यु का समय आने पर मुनि भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन में से किसी एक को स्वीकार कर सकाम मरण से शरीर को छोड़ता है । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ५- का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन- ६ - क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय
[१६१-१६२] जितने अविद्यावान् हैं, वे सब दुःख के उत्पादक हैं । वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं । इसलिए पण्डित पुरुष अनेकविध बन्धनों की एवं जातिपथों की समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और विश्व के सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे ।
[१६३-१६४] अपने ही कृत कर्मों से लुप्त मेरी रक्षा करने में माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी तथा औरस पुत्र समर्थ नहीं हैं । सम्यक् द्रष्टा साधक अपनी स्वतंत्र बुद्धि से इस अर्थ की सत्यता को देखे । आसक्ति तथा स्नेह का छेदन करे । किसी के पूर्व परिचय की भी अभिलाषा न करे ।
[१६५ ] गौ, बैल, घोड़ा, मणि, कुण्डल, पशु, दास और अन्य सहयोगी पुरुष - इन सबका परित्याग करनेवाला साधक परलोक में कामरूपी देव होगा ।
[१६६] कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को स्थावर-जंगम संपत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरण भी दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते ।
[१६७ ] 'सबको सब तरह से सुख प्रिय है, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है'यह जानकर भय और वैर से उपरत साधक किसी भी प्राणी के प्राणों की हिंसा न करे । [१६८] अदत्तादान नरक है, यह जानकर बिना दिया हुआ एक तिनका भी मुनि न