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उत्तराध्ययन- ४ / १२१
[१२१] आशुप्रज्ञावाला ज्ञानी साधक सोए हुए लोगों में भी प्रतिक्षण जागता रहे । प्रमाद में एक क्षण के लिए भी विश्वास न करे । समय भयंकर है, शरीर दुर्बल है अतः भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमादी होकर विचरण करे ।
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[१२२] साधक पग-पग पर दोपों की संभावना को ध्यान में रखता हुआ चले, छोटे दोप को भी पाश समझकर सावधान रहे । नये गुणों के लाभ के लिए जीवन सुरक्षित रखे । और जब लाभ न होता दीखे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर को छोड़े ।
[१२३] शिक्षित और वर्म दारी अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है, वैसे ही स्वच्छंदता निरोधक साधक संसार से पार हो जाता है । पूर्व जीवन में अप्रमत्त होकर विचरण करनेवाला मुनि शीघ्र ही मोक्ष पाता है ।
[१२४] 'जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं रहता, वह बाद में भी अप्रमत्त नहीं हो पाता है- ' यह ज्ञानी जनों की धारणा है । 'अभी क्या है, बाद में अन्तिम समय अप्रमत्त हो जाऐंगे
,
यह शाश्वतवादियों की मिथ्या धारणा है । पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के समय, शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद को पाता है । [१२५] कोई भी तत्काल विवेक को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः अभी से कामनाओं का परित्याग कर, सन्मार्ग में उपस्थित होकर, समत्व दृष्टि से लोक को अच्छी तरह जानकर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त होकर विचरे ।
[१२६] बार-बार रागद्वेष पर विजय पाने को यत्नशील संयम में विचरण करते श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्श परेशान करते हैं । किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न करे ।
[१२७] अनुकूल स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं मन को न लगाए । क्रोध से अपने को बचाए रखे न करे । लोभ को त्यागे ।
। किन्तु साधक तथाप्रकार के विषयों मान को दूर करे । माया का सेवन
।
[१२८] जो व्यक्ति संस्कारहीन, तुच्छ और परप्रवादी हैं, जो राग और द्वेष में फंसे हुए हैं, वासनाओं के दास हैं, वे 'धर्म रहित हैं'-ऐसा जानकर साधक उनसे दूर रहे । शरीर-भेद के अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की आराधना करे । ऐसा मैं कहता हूँ |
अध्ययन - ४ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन- ५ - अकाममरणीय
[१२९-१३०] संसार सागर की भाँति है, उसका प्रवाह विशाल है, उसे तैर कर पार पहुंचना अतीव कष्टसाध्य है । फिर भी कुछ लोग पार कर गये हैं । उन्हीं में से एक महाप्राज्ञ (महावीर) ने यह स्पष्ट किया था । मृत्यु के दो भेद हैं-अकाम मरण और सकाम मरण । [१३१] वालजीवों के अकाम मरण बार-बार होते हैं । पण्डितों का सकाम मरण उत्कर्ष से एक बार होता है ।
काम
[१३२ - १३४] महावीर ने दो स्थानों में से प्रथम स्थान के विषय में कहा है कि -भोग में आसक्त बाल जीव अज्ञानी आत्मा क्रूर कर्म करता है । जो काम-भोगों में आसक्त होता है, वह कूट की ओर जाता है । वह कहता है- "परलोक तो मैंने देखा नहीं है।