________________
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[१०७] सरलता से शुद्धि प्राप्त होती है । शुद्धि में धर्म रहता है । जिसमें धर्म है वह घृत से सिक्त अग्नि की तरह परम निर्वाण को प्राप्त होता है ।
[१०८] कर्मों के हेतुओं को दूर करके और क्षमा से यश-का संयम करके वह साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा की ओर जाता है ।
[१०९] अनेक प्रकार के शील को पालन करने से देव होते हैं । उत्तरोत्तर समृद्धि के द्वारा महाशुक्ल की भांति दीप्तिमान् होते हैं । और तब वे ‘स्वर्ग से च्यवन नहीं होता है'-ऐसा मानने लगते हैं ।
[११०] एक प्रकार से दिव्य भोगों के लिए अपने को अर्पित किए हुए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं । तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्व वर्ष शत तक रहते हैं ।
[१११] वहां देवलोक में यथास्थान अपनी काल-मर्यादातक ठहरकर, आयु क्षय होने पर वे देव वहां से लौटते हैं, और मनुष्ययोनि को प्राप्त होते हैं । वे वहां दशांग से युक्त होते हैं ।
[११२] क्षेत्रभूमि, वास्तु, स्वर्ण, पशु और दास ये चार काम-स्कन्ध जहां होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं ।
[११३] वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान्, उच्च गोत्रवाले, सुन्दर वर्णवाले, नीरोग, महाप्राज्ञ, अभिजात, यशस्वी और बलवान होते हैं ।
[११४] जीवपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर भी पूर्व काल में विशुद्ध सद्धर्म के आराधक होने के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते हैं ।।
[११५] पूर्वोक्त चार अंगों को दुर्लभ जानकर साधक संयम धर्म को स्वीकार करते हैं। अनन्तर तपश्चर्या से समग्र कर्मों को दूर कर शाश्वत सिद्ध होते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
( अध्ययन-४-असंस्कृत ) [११६] टूटा जीवन सांधा नहीं जा सकता, अतः प्रमाद मत करो, वृद्धावस्था में कोई शरण नहीं है । यह विचारो कि 'प्रमादी, हिंसक और असंयमी मनुष्य समय पर किसकी शरण लेंगे।'
[११७] जो मनुष्य अज्ञानता के कारण पाप-प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, वे वासना के जाल में पड़े हुए और वैर से बंधे मरने के बाद नरक में जाते हैं ।
[११८] जैसे संधि-मुख में पकड़ा गया पापकारी चोर अपने कर्म से छेदा जाता है, वैसे ही जीव अपने कृत कर्मों के कारण लोक तथा परलोक में छेदा जाता है । किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है ।
[११९] संसारी जीव अपने और अन्य बंधु-बांधवों के लिए साधारण कर्म करता है, किन्तु उस कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बन्धुता नहीं दिखाता है ।
[१२०] प्रमत्त मनुष्य इस लोक में और परलोक में धन से त्राण- नहीं पाता है । दीप बुझ गया हो उसको पहले प्रकाश में देखा हुआ मार्ग भी न देखे हुए जैसे हो जाता है, वैसे ही अनन्त मोह के कारण प्रमत्त व्यक्ति मोक्ष-मार्ग को देखता हुआ भी नहीं देखता है ।