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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
'मूर्छा परिग्रह है',-ऐसा महर्षि ने कहा है | यथावद्वस्तुतत्त्वज्ञ साधु सर्व उपधि का संरक्षण करने और उन्हें ग्रहण करने में ममत्वभाव का आचरण नहीं करते, इतना ही नहीं, वे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं करते ।
[२४७-२५०] अहो ! समस्त तीर्थंकरों ने संयम के अनुकूल वृत्ति और एक बार भोजन इस नित्य तपःकर्म का उपदेश दिया है । ये जो त्रस और स्थावर अतिसूक्ष्म प्राणी हैं, जिन्हें रात्रि में नहीं देख पाता, तब आहार की एषणा कैसे कर सकता है ? उदक से आर्द्र, बीजों से संसक्त आहार को तथा पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणियों को दिन में बचाया जा सकता है, तब फिर रात्रि में निर्ग्रन्थ भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ? ज्ञातपुत्र ने इसी दोष को देख कर कहा-निर्ग्रन्ध साधु रात्रिभोजन नहीं करते । वे रात्रि में चारों प्रकार के आहार का सेवन नहीं करते ।
[२५१-२५३] श्रेष्ठ समाधि वाले संयमी मन, वचन और काय-योग से और कृत, कारित एवं अनुमोदन-करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते । पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ साधक उसके आश्रित रहे हुए विविध प्रकार के चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन पृथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
[२५४-२५६] सुसमाधिमान् संयमी मन, वचन और काय-त्रिविध करण से अप्काय की हिंसा नहीं करते । अप्कायिक जीवों की हिंसा करता हुआ साधक उनके आश्रित रहे हुए विविध चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन अप्काय के समारम्भ का त्याग करे ।
[२५७] साधु-साध्वी-अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते; क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय है । वह चारो दिशा, उर्ध्व तथा अधोदिशा और विदिशाओं में सभी जीवों का दहन करती है । निःसन्देह यह अग्नि प्राणियों के लिए आघातजनक है । अतः संयमी प्रकाश और ताप के लिए उस का किंचिन्मात्र भी आरम्भ न करे । इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन-पर्यन्त अनिकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
[२६१-२६४] तीर्थंकरदेव वायु के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के सदृश ही मानते हैं। यह सावध-बहुल है । अतः यह षट्काय के त्राता साधुओं के द्वारा आसेवित नहीं है । ताड़ के पंखे से, पत्र से, वृक्ष की शाखा से, स्वयं हवा करना तथा दूसरों से करवाना नहीं चाहते
और अनुमोदन भी नहीं करते हैं । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण हैं, उनके द्वारा (भी) वे वायु की उदीरणा नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक वस्त्र-पात्रादि उपकरण को धारण करते हैं । इस दुर्गतिवर्द्धक दोष को जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त वायुकाय-समारम्भ का त्याग करे ।
[२६५-२६७] सुसमाहित संयमी मन, वचन और काय तथा त्रिविध करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते । वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ साधु उसके आश्रित विविध चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन भर वनस्पतिकाय के समारम्भ का त्याग करे ।