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नमो नमो निम्मलदसणस्स |४३ उत्तराध्ययन
मूलसूत्र-४-हिन्दी अनुवाद ।
( अध्ययन-१-विनयश्रुत) [१] जो सांसारिक संयोगों से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, उसके विनय धर्म का अनुक्रम से निरूपण करूँगा, उसे ध्यानपूर्वक मुझसे सुनो ।
[२] जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सान्निध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकार को जानता है, वह 'विनीत' है ।
[३] जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता है, गुरु के सान्निध्य में नहीं रहता है, गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है, असंबुद्ध है-वह ‘अविनीत' है ।
[४] जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाला जाता है ।
[५] जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार पशुबुद्धि शिष्य शील छोड़कर दुःशील में रमण करता है ।
[६] अपना हित चाहने वाला भिक्षु, सड़े कान वाली कुतिया और विष्ठाभोजी सूअर के समान, दुःशील से होनेवाले मनुष्य की हीनस्थिति को समझ कर विनय धर्म में अपने को स्थापित करे ।
[७] इसलिए विनय का आचरण करना जिससे कि शील की प्राप्ति हो । जो बुद्धपुत्र है-वह कहीं से भी निकाला नहीं जाता ।
[८] शिष्य गुरुजनों के निकट सदैव प्रशान्त भाव से रहे, वाचाल न बने । अर्थपूर्ण पदों को सीखे । निरर्थक बातों को छोड़ दे ।
[१] गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर समझदार शिष्य क्रोध न करे, क्षमा की आराधना करे- । क्षुद्र व्यक्तियों के सम्पर्क से दूर रहे, उनके साथ हंसी, मजाक और अन्य कोई क्रीड़ा भी न करे ।
[१०] शिष्य आवेश में आकर कोई चाण्डालिक कर्म न करे, बकवास न करे । अध्ययन काल में अध्ययन करे और उसके बाद एकाकी ध्यान करे ।
[११] आवेश-वश यदि शिष्य कोई चाण्डालिक व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए । किया हो तो 'किया' और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे ।
[१२] जैसे कि गलिताश्व-को बार-बार चाबुक की जरूरत होती है, वैसे शिष्य गुरु के बार-बार आदेश-वचनों की अपेक्षा न करे । किन्तु जैसे आकीर्ण अश्व चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे योग्य शिष्य गुरु के संकेतमात्र से पापकर्म छोड़ दे ।।
[१३] आज्ञा में न रहने वाले, विना विचारे बोलने वाले दुष्ट शिष्य, मृदु स्वभाव वाले