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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
गुरु को भी क्रुद्ध बना देते हैं । और गुरु के मनोनुकूल चलनेवाले एवं पटुता से कार्य करनेवाले शिष्य शीघ्र ही कुपित होनेवाले दुराश्रय गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं ।
[१४] बिना पूछे कुछ भी न बोले, पूछने पर भी असत्य न कहे । यदि कभी क्रोध आ जाए तो उसे निष्फल करे-आचार्य की प्रिय और अप्रिय दोनों ही शिक्षाओं को धारण करे।
[१५] स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना । स्वयं पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है ।
[१६] शिष्य विचार करे-'अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा स्वयं पर विजय प्राप्त करूं । बन्धन और बध के द्वारा दूसरों से मैं दमित किया जाऊं, यह अच्छा नहीं है ।'
[१७] लोगों के समक्ष अथवा अकेले में वाणी से अथवा कर्म से, कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए ।
[१८] अर्थात् आचार्यों के बराबर या आगे न बैठे, न पीठ के पीछे ही सटकर बैठे, गुरु के अति निकट जांघ से जांघ सटाकर न बैठे । बिछौने पर बैठे-बैठे ही गुरु के कथित आदेश का स्वीकृतिरूप उत्तर न दे ।
[१९] गुरु के समक्ष पलथी लगाकर न बैठे, दोनों हाथों से शरीर को बांधकर न बैठे तथा पैरों को फैलाकर भी न बैठे ।
[२०] गुरु के प्रासाद को चाहने वाला मोक्षार्थी शिष्य, आचार्यों के द्वारा बुलाये जाने पर किसी भी स्थिति में मौन न रहे, किन्तु निरन्तर उनकी सेवा में उपस्थित रहे ।
[२१] गुरु के द्वारा बुलाए जाने पर बुद्धिमान् शिष्य कभी बैठा न रहे, किन्तु आसन छोड़कर उनके आदेश को यत्नपूर्वक स्वीकार करे ।
[२२] आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे, किन्तु उनके समीप आकर, उकडू आसन से बैठकर और हाथ जोड़कर पूछे ।
[२३] विनयी शिष्य के द्वारा इस प्रकार विनीत स्वभाव से पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय-दोनों का यथाश्रुत निरूपण करे ।
[२४] भिक्षु असत्य का परिहार करे, निश्चयात्मक भाषा न बोले । भाषा के अन्य परिहास एवं संशय आदि दोषों को भी छोड़े । माया का सदा परित्याग करे ।
[२५] किसी के पूछने पर भी अपने, दूसरों के अथवा दोनों के लिए सावध भाषा न बोले, निरर्थक न बोले, मर्म-भेदक वचन न कहे ।।
[२६] लुहार की शाला, घरों, घरों की बीच की संधियों और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ खड़ा न रहे, न बात करे ।
[२७] 'प्रिय अथवा कठोर शब्दों से आचार्य मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है'-ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उनका अनुशासन स्वीकार करे ।
[२८] आचार्य का प्रसंगोचित कोमल या कटोर अनुशासन दुष्कृत का निवारक है । उस अनुशासन को बुद्धिमान शिष्य हितकर मानता है । असाधु के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बनता है ।