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दशवैकालिक-६/-/२२६
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(अध्ययन-६-महाचारकथा) [२२६-२२७] ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-सम्पदा से युक्त गणिवर्य-आचार्य को उद्यान में समवसृत देखकर राजा और राजमंत्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय निश्चलात्मा होकर पूछते हैं-हे भगवन् ! आप का आचार-गोचर कैसा है ?
[२२८-२२९] तब वे शान्त, दान्त, सर्वप्राणियों के लिए सुखावह, ग्रहण और आसेवन, शिक्षाओं से समायुक्त और परम विचक्षण गणी उन्हें कहते हैं कि धर्म के प्रयोजनभूत मोक्ष की कामना वाले निर्ग्रन्थों के भीम, दुरधिष्ठित और सकल आचार-गोचर मुझसे सुनो ।
[२३०-२३२] जो निर्ग्रन्थाचार लोक में अत्यन्त दुश्चर है, इस प्रकार के श्रेष्ठ आचार का अन्य कहीं नहीं है । सर्वोच्च स्थान के भागी साधुओं का ऐसा आचार अन्य मत में न अतीत में था, न ही भविष्य में होगा । बालक हो या वृद्ध, अस्वस्थ हो या स्वस्थ, को जिन गुणों का पालन अखण्ड और अस्फुटित रूप से करना चाहिए, वे गुण जिस प्रकार हैं, उसी प्रकार मुझ से सुनो । उसके अठारह स्थान हैं । जो अज्ञ साधु इन अठारह स्थानों में से किसी एक का भी विराधन करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है ।।
[२३३-२३५] प्रथम स्थान अहिंसा का है, अहिंसा को सूक्ष्मरूप से देखी है । सर्वजीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है । लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं; साधु या साध्वी, जानते या अजानते, उनका हनन न करे और न ही कराए; अनुमोदना भी न करे । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए निर्ग्रन्थ साधु प्राणिवध को घोर जानकर परित्याग करते हैं ।
[२३६-२३७] अपने लिए या दूसरों के लिए, क्रोध से या भय से हिंसाकारक और असत्य न बोले, न ही बुलवाए और न अनुमोदन करे । लोक में समस्त साधुओं द्वारा मृषावाद गर्हित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है । अतः निर्ग्रन्थ मृषावाद का पूर्णरूप से परित्याग कर दे ।
[२३८-२३९] संयमी साधु-साध्वी, पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दन्तशोधन मात्र भी हो, जिस गृहस्थ के अवग्रह में हो; उससे याचना किये बिना स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से ग्रहण नहीं कराते और न ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करते हैं ।
[२४०-२४१] अब्रह्मचर्य लोक में घोर, प्रमादजनक और दुराचरित है । संयम का भंग करनेवाले स्थानों से दूर रहनेवाले मुनि उसका आचरण नहीं करते । यह अधर्म का मूल है । महादोषों का पुंज है । इसीलिए निर्ग्रन्थ मैथुन के संसर्ग का त्याग करते हैं ।
[२४२-२४६] जो ज्ञातपुत्र के वचनों में रत हैं, वे बिडलवण, सामुद्रिक लवण, तैल, घृत, द्रव गुड़ आदि पदार्थों का संग्रह करना नहीं चाहते । यह संग्रह लोभ का ही विघ्नकारी अनुस्पर्श है, ऐसा मैं मानता हूँ । जो साधु कदाचित् यत्किंचित् पदार्थ की सन्निधि की कामना करता है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण रखते हैं, उन्हें भी वे संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते हैं और उनका उपयोग करते हैं। समस्त जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र ने इस (वस्त्रादि उपकरण समुदाय) को परिग्रह नहीं कहा है।