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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उसके वध का कारण होता है । वहाँ संकल्प वध के लिए होता है । गृहवास क्लेश-युक्त है, मुनिपर्याय क्लेशरहित है । गृहवास बन्ध है, श्रमणपर्याय मोक्ष है । गृहवास सावध है, मुनिपर्याय अनवद्य है । गृहस्थों के कामभोग बहुजन-साधारण हैं । प्रत्येक के पुण्य और पाप अपने-अपने हैं । मनुष्यों का जीवन कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है, निश्चय ही अनित्य है । मैंने पूर्वे बहुत ही पापकर्म किये हैं । दुष्ट भावों से आचरित तथा दुष्पराक्रम से अर्जित पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग लेने पर ही मोक्ष होता है, अथवा तप के द्वारा क्षय करने पर ही मोक्ष होता है ।
[५०७-५०८] इस विषय में कुछ श्लोक हैं-जब अनार्य (साधु) भोगो के लिए (चास्त्रि-) धर्म को छोड़ता है, तब वह भोगों में मूर्छित बना हुआ अज्ञ अपने भविष्य को सम्यक्तया नहीं समझता । वह सभी धर्मों में परिभ्रष्ट हो कर वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे आयु पूर्ण होने पर देवलोक के वैभव से च्युत हो कर पृथ्वी पर पड़ा हुआ इन्द्र ।
[५०९-५११] जब (साधु प्रव्रजित अवस्था में होता है, तब) वन्दनीय होता है, वही पश्चात् अवन्दनीय हो जाता है, तब वह उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार अपने स्थान से च्युत देवता । पहेले पूज्य होता है, वही पश्चात् अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य से भ्रष्ट राजा । पहेले माननीय होता है, वही पश्चात् अमाननीय हो जाता है, तब वह वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कर्बट में अवरुद्ध सेठ ।
[५१२-५१४] उत्प्रव्रजित व्यक्ति यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर जब वृद्ध होता है, तब वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कांटे को निगलने के पश्चात् मत्स्य । दुष्ट कुटुम्ब की कुत्सित चिन्ताओं से प्रतिहत होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे बन्धन में बद्ध हाथी । पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से व्याप्त वह पंक में फंसे हुए हाथी के समान परिताप करता है ।
[५१५] यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होकर जिनोपदिष्ट श्रामण्य-पर्याय में रमण करता तो आज मैं गणी (आचार्य) होता ।
[५१६-५१७] (संयम में) रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक समान और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए महानरक समान होता है । इसलिए मुनिपर्याय में रत रहनेवालों का सुख देवों समान उत्तम जान कर तथा नहीं रहनेवालों का दुःख नरक समान तीव्र जान कर पण्डितमुनि मुनिपर्याय में ही रमण करे ।
[५१८] जिसकी दाढ़े निकाल दी गई हों, उस घोर विषधर की साधारण अज्ञ जन भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म से भ्रष्ट, श्रामण्य रूपी लण्मी से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि के समान निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील लोग भी निन्दा करते हैं ।
[५१९] धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र को भंग करने वाला इसी लोक में अधर्मी कहलाता है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है ।
[५२०] वह संयम-भ्रष्ट साधु आवेशपूर्ण चित्त से भोगों को भोग कर एवं तथाविध बहुत-से असंयम का सेवन करके दुःखपूर्ण अनिष्ट गति में जाता है और उसे बोधि सुलभ नहीं होती ।