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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद समाहितचित्त रहता है, स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता, वमन किये हुए (विषयभोगों) को पुनः नहीं सेवन करता; वह भिक्षु होता है ।
[४८६] जो पृथ्वी को नहीं खोदता, नहीं खुदवाता, सचित्त जल नहीं पीता और न पिलाता है, अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है ।
[४८७] जो वायुव्यंजक से हवा नहीं करता और न करवाता है, हरित का छेदन नहीं करता और न कराता है, बीजों का सदा विवर्जन करता हुआ सचित्त का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है ।
[४८८] (भोजन बनाने में) पृथ्वी, तृण और काष्ठ में आश्रित रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है । इसलिए जो औद्देशिक का उपभोग नहीं करता तथा जो स्वयं नहीं पकाता और न पकवाता है, वह भिक्षु है ।
[४८९] जो ज्ञातपुत्र (श्रमण भगवान् महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षट्कायिक जीवों (सर्वजीवों) को आत्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच (हिंसादि) आस्रवों का संवरण (निरोध) करता है, वह भिक्षु है ।
[४९०] जो चार कपायों का वमन करता है, तीर्थंकरों के प्रवचनों में सदा ध्रुवयोगी रहता है, अधन है तथा सोने और चाँदी से स्वयं मुक्त है, गृहस्थों का योग नहीं करता, वही भिक्षु है ।
[४९१] जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जो सदा अमूढ है, ज्ञान, तप और संयम में आस्थावान् है तथा तपस्या से पुराने पाप कर्मों को नष्ट करता है और मन-वचन-काया से सुसंवृत है, वही भिक्षु है ।
[४९२] पूर्वोक्त एषणाविधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर'यह कल या परसों काम आएगा,' इस विचार से जो संचित न करता है और न कराता है, वह भिक्षु है ।
[४९३] पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन आदि आहार को पाकर जो अपने साधर्मिक साधुओं को निमन्त्रित करके खाता है तथा भोजन करके स्वाध्याय में रत रहता है, वही भिक्षु है ।
[४९४] जो कलह उत्पन्न करने वाली कथा नहीं करता और न कोप करता है, जिसकी इन्द्रियां निभृत रहती हैं, प्रशान्त रहता है । संयम में ध्रुवयोगी है, उपशान्त रहता है और जो उचित कार्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है ।
[४९५] जो कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को तथा सुख-दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है; वही भिक्षु है ।
[४९६] जो श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके (वहाँ के) अतिभयोत्पादक दृश्यों को देख कर भयभीत नहीं होता, विविध गुणों एवं तप में रत रहता है, शरीर की भी आकांक्षा नहीं करता, वही भिक्षु है ।
[४९७] जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और (ममत्व) त्याग करता है, किसी के द्वारा आक्रोश किये जाने, पीटे जाने अथवा क्षत-विक्षत किये जाने पर भी पृथ्वी के समान