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दशवैकालिक-९/४/४७१
| अध्ययन-९-उद्देशक-४ [४७१-४७२] आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् ने कहा है-स्थविर भगवंतों ने विनयसमाधि के चार स्थानों बताये है-विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि । जो जितेन्द्रिय होते हैं, वे पण्डित अपनी आत्मा को इन चार स्थानों में निरत रखते हैं ।
[४७३-४७५] विनयसमाधि चार प्रकार की होती है । जैसे-अनुशासित किया हुआ (शिष्य) आचार्य के अनुशासन-वचनों को सुनना चाहता है; अनुशासन को सम्यक् प्रकार से स्वीकारता है; शास्त्र की आराधना करता है; और वह आत्म-प्रशंसक नहीं होता । इस (विषय) में श्लोक भी है-आत्मार्थी मुनि हितानुशासन सुनने की इच्छा करता है; शुश्रूषा करता है, उस के अनुकूल आचरण करता है; विनयसमाधि में (प्रवीण हूँ) ऐसे उन्माद से उन्मत्त नहीं होता।
[४७६-४७८] श्रुतसमाधि चार प्रकार की होती है; जैसे कि-'मुझे श्रुत प्राप्त होगा, 'मैं एकाग्रचित्त हो जाऊँगा,' मैं अपनी आत्मा को स्व-भाव में स्थापित करूँगा, एवं मैं दूसरों को (उसमें) स्थापित करूंगा, इन चारों कारणो से अध्ययन करना चाहिए । इस में एक श्लोक है-प्रतिदिन शास्त्राध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त एकाग्र हो जाता है, स्थिति होती है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुतसमाधि में रत हो जाता है ।
[४७९-४८०] तपःसमाधि चार प्रकार की होती है । यथा-इहलोक के, परलोक के, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए, निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से, चारो कारणो से तप नहीं करना चाहिए, सदैव विविध गुणों वाले तप में (जो साधक) रत रहता है, पौद्गलिक प्रतिफल की आशा नहीं रखता; कर्मनिर्जरार्थी होता है; वह तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर डालता है और सदैव तपःसमाधि से युक्त रहता है ।
[४८१-४८२] आचारसमाधि चार प्रकार की है; इहलोक, परलोक, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक, आर्हत हेतुओं के सिवाय अन्य किसी भी हेतु ईन चारों को लेकर आचार का पालन नहीं करना चाहिए, यहाँ आचारसमाधि के विषय में एक श्लोक है-'जो जिनवचन में रत होता है, जो क्रोध से नहीं भन्नाता, जो ज्ञान से परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, वह मन और इन्द्रियों का दमन करने वाला मुनि आचारसमाधि द्वारा संवृत होकर मोक्ष के अत्यन्त निकट करने वाला होता है ।
[४८३-४८४] परम-विशुद्धि और (संयम में) अपने को भलीभाँति सुसमाहित रखने वाला जो साधु है, वह चारों समाधियों को जान कर अपने लिए विपुल हितकर, सुखावह एवं कल्याण कर मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है । जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है, नरक आदि सब पर्यायों को सर्वथा त्याग देता है । या तो शाश्वत सिद्ध हो जाता है, अथवा महर्द्धिक देव होता है । अध्ययन-९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-१०-स भिक्षु) [४८५] जो तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में सदा