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दशवैकालिक-७/-/३१३
मां !, हे मौसी !, हे बुआ !, ऐ भानजी !, अरी पुत्री !, हे नातिन, हे हला !, हे अन्ने !, हे भट्टे ! हे स्वामिनि !, हे गोमिनि ! - इस प्रकार आमंत्रित न करे । किन्तु यथायोग्य गुणदोप, वय आदि का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमन्त्रित करे । पुरुष को-हे दादा ! हे परदादा !, हे पिता !, हे चाचा !, हे मामा !, हे भानजा !, हे पुत्र !, हे पोते !, हे हल !, हे अन्न !, हे भट्ट !, हे स्वामिन् !, हे वृपल !' इस प्रकार आमंत्रित न करे । किन्तु यथायोग्य गुण-दोष वय आदि का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमंत्रित करे ।
[३१४-३१६] पंचेन्द्रिय प्राणियों को जब तक 'यह मादा अथवा नर है' यह निश्चयपूर्वक न जान ले, तब तक यह मनुष्य की जाति है, यह गाय की जाति है, इस प्रकार बोले । इसी प्रकार मनुष्य, पशु-पक्षी अथवा सर्प (सरीसृप) को देख कर कहा स्थूल है, प्रमेदुर है, वध्य है, या पाक्य है, इस प्रकार न कहे । प्रयोजनवश बोलना ही पड़े तो उसे परिवृद्ध, उपचित, संजात, प्रीणित या (यह) महाकाय है, इस प्रकार बोले ।।
[३१७-३१८] इसी प्रकार प्रज्ञावान् मुनि-'ये गायें दुहने योग्य हैं, ये वछड़े दमन योग्य हैं, वहन करने योग्य हैं, रथ योग्य हैं; इस प्रकार न बोले । प्रयोजनवश बोलना ही पड़े तो यह युवा बैल है, यह दूध देने वाली है तथा छोटा बैल, बड़ा बैल अथवा संवहन है, इस प्रकार बोले ।
[३१९-३२१] इसी प्रकार उद्यान में, पर्वतों पर अथवा वनों में जाकर बड़े-बड़े वृक्षों को देख कर प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार न बोले-'ये वृक्ष प्रासाद, स्तम्भ, तोरण, घर, परिघ, अर्गला एवं नौका तथा जल की कुंडी, पीठ, काठपात्र, हल, मयिक, यंत्रयष्टि, गाड़ी के पहिये की नाभि अथवा अहरन, आसन, शयन, यान और उपाश्रय के (लिए) उपयुक्त कुछ (काठ) हैं इस प्रकार की भूतोपघातिनी भाषा प्रज्ञासम्पन्न साधु न बोले ।
[३२३-३२४] (कारणवश) उद्यान में, पर्वतों पर या वनों में जा कर रहा हुआ प्रज्ञावान साधु वहां बड़े-बड़े वृक्षों को देख इस प्रकार कहे-'ये वृक्ष उत्तम जाति वाले हैं, दीर्घ, गोल, महालय, शाखाओं एवं प्रशाखाओं वाले तथा दर्शनीय हैं, इस प्रकार बोले ।।
[३२५-३२६] तथा ये फल परिपक्क हो गए हैं, पका कर खाने के योग्य हैं, ये फल कालोचित हैं, इनमें गुठली नहीं पड़ी, ये दो टुकड़े करने योग्य हैं-इस प्रकार भी न बोले । प्रयोजनवश बोलना पड़े तो “ये आम्रवृक्ष फलों का भार सहने में असमर्थ हैं, बहुनिवर्तित फल वाले हैं, बह-संभूत हैं अथवा भूतरूप हैं; इस प्रकार वोले ।
[३२७-३२८] इसी प्रकार–'ये धान्य-ओषधियाँ पक गई हैं, नीली छाल वाली हैं, काटने योग्य हैं, ये भूनने योग्य हैं, अग्नि में सेक कर खाने योग्य हैं; इस प्रकार न कहे । यदि प्रयोजनवश कुछ कहना हो तो ये ओषधियाँ अंकुरित, प्रायः निष्पन्न, स्थिरीभूत, उपघात से पार हो गई हैं । अभी कण गर्भ में हैं या कणे गर्भ से बाहर निकल आये हैं, या सिट्टे परिपक्क बीज वाले हो गये हैं, इस प्रकार बोले ।
[३२९-३३२] इसी प्रकार साधु को जीमणवार (संखडी) और कृत्य (मृतकभोज) जान कर ये करणीय हैं, यह चोर मारने योग्य हैं, ये नदियाँ अच्छी तरह से तैरने योग्य हैं, इस प्रकार न बोले-(प्रयोजनवश कहना पड़े तो) संखडी को (यह) संखडी है, चोर को 'अपने