________________
दशवैकालिक-७/-/३४६
३७
[३४६] साधु, नभ और मेघको अन्तरिक्ष तथा गुह्यानुचरित कहे तथा ऋद्धिमान् मनुष्य को ‘यह ऋद्धिशाली है', ऐसा कहे ।
[३४७] जो भाषा सावध का अनुमोदन करनेवाली हो, जो निश्चयकारिणी एवं परउपघातकारिणी हो, उसे क्रोध, लोभ, भय या हास्यवश भी न बोले ।
[३४८] जो मुनि श्रेष्ठ वचनशुद्धि का सम्यक् सम्प्रेक्षण करके दोषयुक्त भाषा को सर्वदा सर्वथा छोड़ देता है तथा परिमित और दोषरहित वचन पूर्वापर विचार करके बोलता है, वह सत्पुरुषों के मध्य में प्रशंसा प्राप्त करता है ।
[३४९] षड्जीवनिकाय के प्रति संयत तथा श्रामण्यभाव में सदा यत्नशील रहने वाला प्रबुद्ध साधु भाषा के दोषों और गुणों को जान कर एवं उसमें से दोषयुक्त भाषा को सदा के लिए छोड़ दे और हितकारी तथा आनुलोमिक वचन बोले ।
[३५०] जो साधु गुण-दोषों की परीक्षा करके बोलने वाला है, जिसकी इन्द्रियाँ सुसमाहित हैं, चार कषायों से रहित है, अनिश्रित है, वह पूर्वकृत पाप-मल को नष्ट करके इस लोक तथा परलोक का आराधक होता है | -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-८-आचारप्रणिधि) [३५१] आचार-प्रणिधि को पाकर, भिक्षु को जिस प्रकार (जो) करना चाहिए, वह मैं तुम्हें कहूँगा, जिसे तुम अनुक्रम से मुझसे सुनो ।
३५२-३५३] पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय तथा वनस्पतिकाय तथा त्रस प्राणी; ये जीव हैं, ऐसा महर्षि ने कहा है । उन के प्रति मन, वचन और काया से सदा अहिंसामय व्यापारपूर्वक ही रहना चाहिए । इस प्रकार (अहिंसकवृत्ति से रहने वाला) संयत होता है ।
[३५४-३५५] सुसमाहित संयमी तीन करण तीन योग से पृथ्वी, भित्ति, शिला अथवा मिट्टी का, ढेले का स्वयं भेदन न करे और न उसे कुरेदे, सचित्त पृथ्वी और सचित्त रज से संसृष्ट आसन पर न बैठे । (यदि बैठना हो तो) जिसकी वह भूमि हो, उससे आज्ञा मांग कर तथा प्रमार्जन करके बैठे ।
[३५६-३५७] संयमी साधु शीत उदक, ओले, वर्षा के जल और हिम का सेवन न करे । तपा हुआ गर्म जल तथा प्रासुक जल ही ग्रहण करे । सचित्त जल से भीगे हुए अपने शरीर को न तो पोंछे और न ही मले । तथाभूत शरीर को देखकर, उसका स्पर्श न करे ।
[३५८] मुनि जलते हुए अंगारे, अग्नि, त्रुटित अग्नि की ज्वाला, जलती हुई लकड़ी को न प्रदीप्त करे, न हिलाए और न उसे बुझाए ।
३५९] साधु ताड़ के पंखे से, पत्ते से, वृक्ष की शाखा से अथवा सामान्य पंखे से अपने शरीर को अथवा बाह्य पुद्गल को भी हवा न करे ।
[३६०-३६१] मुनि तृण, वृक्ष, फल, तथा मूल का छेदन न करे, विविध प्रकार के सचित्त वीजों की मन से भी इच्छा न करे । वनकुंजों में, बीजों, हरित तथा उदक, उत्तिंग और पनक पर खड़ा न रहे ।