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दशवैकालिक-५/१/१४१
हों, तो सर्वेन्द्रिय-समाहित भिक्षु उन पर से होकर न जाए । इसी प्रकार प्रकाशरहित और पोले मार्ग से भी न जाए । भगवान् ने उसमें असंयम देखा है ।
[१४२-१४४] यदि आहारदात्री श्रमण के लिए निसैनी, फलक, या पीठ को ऊँचा करके मंच, कीलक अथवा प्रासाद पर चढ़े और वहाँ से भक्त-पान लाए तो उसे ग्रहण न करे; क्योंकि निसैनी आदि द्वारा चढ़ती हुई वह गिर सकती है, उसके हाथ-पैर टूट सकते हैं । पृथ्वी के तथा पृथ्वी के आश्रित त्रस जीवों की हिंसा हो सकती है । अतः ऐसे महादोषों को जान कर संयमी महर्षि मालापहृत भिक्षा नहीं ग्रहण करते ।
[१४५] (साधु-साध्वी) अपक्क कन्द, मूल, प्रलम्ब, छिला हुआ पत्ती का शाक, घीया आदि अदरक ग्रहण न करे ।
[१४६-१४७] इसी प्रकार जौ आदि सत्तु का चूर्ण, बेर का चूर्ण, तिलपपड़ी, गीला गुड़, पूआ तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो बहुत समय से खुली हुई हों और रज से चारों ओर स्पृष्ट हों, तो साधु निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता ।
[१४८-१४९] बहुत अस्थियों वाला फल, बहुत-से कांटों वाला फल, आस्थिक, तेन्दु, बेल, गन्ने के टुकड़े और सेमली की फली, जिनमें खाद्य अंश कम हो और त्याज्य अंश बहुत अधिक हो, उन सब को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करना योग्य नहीं है ।
[१५०] इसी प्रकार उच्चावच पानी अथवा गुड़ के घड़े का, आटे का, चावल का धोवन, इनमें से यदि कोई तत्काल का धोया हुआ हो, तो मुनि उसे ग्रहण न करे ।
[१५१-१५६] यदि अपनी मति और दृष्टि से, पूछ कर अथवा सुन कर जान ले कि यह बहुत देर का धोया हुआ है तथा निःशंकित हो जाए तो जीवरहित और परिणत जान कर संयमी मुनि उसे ग्रहण करे । यदि यह जल मेरे लिए उपयोगी होगा या नहीं ? इस प्रकार की शंका हो जाए, तो फिर उसे चख कर निश्चय करे । 'चखने के लिए थोड़ा-सा यह पानी मेरे हाथ में दो ।' यह पानी बहुत ही खट्टा, दुर्गन्धयुक्त है और मेरी तृषा बुझाने में असमर्थ होने से मेरे लिए उपयोगी न हो तो मुझे ग्राह्य नहीं । यदि वह धोवन-पानी अपनी अनिच्छा से अथवा अन्यमनस्कता से ग्रहण कर लिया गया हो तो, न स्वयं पीए और न ही किसी अन्य साधु को पीने को दे । वह एकान्त में जाए, वहाँ अचित्त भूमि को देख करके यतनापूर्वक उसे प्रतिष्ठापित कर दे पश्चात् स्थान में आकर वह प्रतिक्रमण करे ।
[१५७-१६१] गोचराग्र के लिए गया हुआ भिक्षु कदाचित् आहार करना चाहे तो वह मेधावी मुनि प्रासुक कोष्ठक या भित्तिमूल का अवलोकन कर, अनुज्ञा लेकर किसी आच्छादित एवं चारों ओर से संवृत स्थल में अपने हाथ को भलीभाँति साफ करके वहाँ भोजन करे । उस स्थान में भोजन करते हुए आहार में गुठली, कांटा, तिनका, लकड़ी का टुकड़ा, कंकड़ या अन्य कोई वैसी वस्तु निकले तो उसे निकाल कर न फेंके, न ही मुंह से थूक कर गिराए; किन्तु हाथ में लेकर एकान्त में चला जाए । और एकान्त में जाकर अचित्त भूमि देख - कर यतनापूर्वक उसे परिष्ठापित कर दे । परिठापन करने के बाद (अपने स्थान में आकर) प्रतिक्रमण करे ।
[१६२-१६९] कदाचित् भिक्षु बसति में आकर भोजन करना चाहे तो पिण्डपात