________________ द्रव्य, क्षेत्र प्रादि का चिन्तन किये बिना राग-द्वेषपूर्वक हीनाधिक प्रायश्चित्त देता है वह व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) विराधक होता है।' व्यवहर्तव्य व्यवहर्तव्य व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ हैं। ये अनेक प्रकार के हैं। निर्ग्रन्थ चार प्रकार के हैं१. एकरानिक होता है किन्तु भारीकर्मा होता है, अत: वह धर्म का अनाराधक होता है। 2. एकरानिक होता है और हलुकर्मा होता है, अतः वह धर्म का पाराधक होता है।। 3. एक अवमरात्निक होता है और भारीकर्मा होता है, अतः वह धर्म का अनाराधक होता है / 4. एक अवमरानिक होता है किन्तु हलुकर्मा होता है, अत: वह धर्म का आराधक होता हैं। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियाँ भी चार प्रकार की होती हैं। 4 निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--. 1. पुलाक—जिसका संयमी जीवन भूसे के समान साररहित होता है। यद्यपि तत्त्व में श्रद्धा रखता है, क्रियानुष्ठान भी करता है, किन्तु तपानुष्ठान से प्राप्त लब्धि का उपयोग भी करता है और ज्ञानातिचार लगेऐसा बर्तन-व्यवहार रखता है। 2. बकुश-ये दो प्रकार के होते हैं--उपकरणबकुश और शरीरबकुश / जो उपकरणों को एवं शरीर को सजाने में लगा रहता है और ऋद्धि तथा यश का इच्छुक रहता है / छेदप्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का सेवन करता है। 3. कुशील- यह दो प्रकार का है-१ प्रतिसेवनाकुशील और 2 कषायकुशील / प्रतिसेवनाकुशील जो पिण्डशुद्धि आदि उत्तरगुणों में अतिचार लगाते हैं / कषायकुशील-जो यदा कदा संज्वलन कषाय के उदय से स्वभावदशा में स्थिर नहीं रह पाता / 4. निम्रन्थ-उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ / 5. स्नातक--सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इन पांच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य हैं। जब तक प्रथम संहनन और चौदह पूर्व का ज्ञान रहा तब तक पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त दिये जाते थे। इनके 1. गाहा--जो सुयमहिज्जइ, बहं सुत्तत्थं च निउणं विजाणाइ / कप्पे ववहारंमि य, सो उ पमाणं सुयहराणं / / कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स / जो अत्थतो वियाणइ, बवहारी सो अणुण्णातो।। 2. जो दीक्षापर्याय में बड़ा हो / 3. जो दीक्षापर्याय में छोटा हो / ठाणं०४, उ० 3, सूत्र 320 / -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 605, 607 >> [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org