________________ जीतव्यवहार तीर्थ (जहाँ तक चतुर्विध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त रहता है / अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं।' कुप्रावनिकव्यवहार अनाज में, रस में, फल में और फल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है। कपास, रेशम, ऊन, एकखुर और दोखुर वाले पशु, पक्षी, सुगन्धित पदार्थ, औषधियों और रज्जु आदि की चोरी करे तो तीन दिन दूध पीने से शुद्धि हो जाती है। ऋग्वेद धारण करने वाला विप्र तीनों लोक को मारे या कहीं भी भोजन करे तो उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि तप करना, वर्षाऋतु में वर्षा बरसते समय बिता छाया के बैठना और शरदऋतु में मीले वस्त्र पहने रहना-इस प्रकार क्रमशः तप बढ़ाना चाहिये / " व्यवहारी व्यवहारज्ञ, व्यवहारी, व्यवहर्ता-ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढ़धर्मी हो, वैराग्यवान हो, पापभीरु हो, सूत्रार्थ का ज्ञाता हो और राग-द्वेषरहित (पक्षपातरहित) हो वह व्यवहारी होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अतिचारसेवी पुरुष और प्रतिसेवना का चिन्तन करके यदि किसी को अतिचार के अनुरूप प्रागमविहित प्रायश्चित्त देता है तो व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) अाराधक होता है। 1. गाहा-सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ / / ---व्यव० 10 भाष्य गाथा 55 / अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वशः / फलपुष्पोद्भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् // ---मनु० अ० 11/143 / कासकीटजीर्णानां, द्विशफैकशफस्य च / पक्षिगन्धौषधीनां च, रज्ज्वाश्चैव त्यहं पयः / / -मनु० अ० 11/16 / 4. हत्वा लोकानपीमांस्त्री, नश्यन्नपि यतस्ततः / ऋग्वेदं धारयन्विप्रो, नैनः प्राप्नोति किञ्चन // .-मनु० अ० 11/261 / ग्रीष्मे पञ्चतपास्तुस्याद्वर्षा स्वभ्रावकाशिकः / आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयस्तपः॥ -मनु० अ० 6/23 / 6. क-पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव दज्जभीरू अ। सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सिय ववहारकारी य / / --व्य० भाष्य पीठिका गाथा 14 / ख–१ प्राचारवान्, 2 अाधारवान्, 3 व्यवहारवान्, 4 अपनीडक, 5 प्रकारी, 6 अपरिश्रावी, 7 निर्यापक, 8 अपायदर्शी, 9 प्रियधर्मी, 10 दृढ़धर्मी। ठाणं० 10, सू० 733 / ग-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 243 / 245 / 246 / 247 / 298 / 300 / [ 22 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org