Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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__ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे स्थापत्यापुत्रः कथयति-हे शुक ! यापनीयं द्विविध प्रज्ञसं, तद् यथा इन्द्रियया यनीयं नोइन्द्रिय यायनोयं च. ।
शुको बूते-अथ किं तद् इन्द्रिययापनीयम्. ।
स्थापत्यापुत्रः समाधत्ते-'सुया ! इत्यादि । हे शुक ! यत् यस्मात् कारणात् खलु मम श्रोत्रेन्द्रि-चक्षुरिन्द्रिय-घाणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रि-स्पर्शेन्द्रियाणि निरूपहतानि वशे वर्तन्ते, तद् इन्द्रिययानीम् इन्द्रियाणां वशीकरणं मम वर्तते । 'तं' इतिवाक्यालङ्कारे, एवमन्यत्रापि । दशमें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण से कही है। (से किं त भंते जवणिज्ज) हे भदंत! यापनीय शब्द का क्या अर्थ है ? (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पणते तं जहा-इंदियजवणिज्जे य णो इंदियजवणिज्जे य) इस प्रकार शुक परिव्राजक के पूछने पर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसे समझाया कि हे शुक ! यापनीय दो प्रकार का कहा हुआ है -जैसे १ इन्द्रि यापनीय २ नो इन्द्रिय यापनीय । (से किं तं इदियजवणिज) इन्द्रिय यापनीय का क्या स्वरूप है इस प्रकार शुक के पूछ ने पर स्थापत्या पुत्र ने कहा (सुया ! जन्नं ममं सोइंदिय चक्खिदिय जिभिदिय फासिदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, से तं इंदियजवणिज्ज ) शुक! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घाणइन्द्रिय, जिह्वाइन्द्रिय, स्पर्शनइन्द्रिय निरुपहत बन कर जो मेरे वश में हो रही हैं यहीं इन्द्रिय यापनीय हैं अर्थात् विना किसी बाधा के अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होने पर भी ये पांचो इन्द्रियां जो मेरे वश में वर्त रही हैं यही (से कि त भते जवणिज्ज) : महन्त ! यायनीय १५४नेम शुछ ? (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते त जहा इदियजवणिज्जे य णो इंदिय जवणिज्जे य ) शुपरिना४४॥ प्रश्नने सलमान स्थापत्यापुत्र सनगारे तेने સમજાવતાં કહ્યું કે–હે શુક! યાપનીયના બે પ્રકારે કહ્યાં છે. (૧) ઈન્દ્રિય યાપनीय मने. (२) इन्द्रिय यापनीय (से किं त ईदियजवणिज्ज)न्द्रिय યાપનીયનું સ્વરૂપ શું છે? શુક પરિવ્રાજકના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં સ્થાપત્યા પુત્રે
-(सया! जन्न मम सोई दिय चक्खिदिय जिभिदियफासि दियाइ निरुवह याई वसे वति, से तं इंदियजवणिज्ज) 3 शु४! श्रोत्रेन्द्रिय, यक्षु धन्द्रि ઘાણ ઈન્દ્રિય, જિ હા ઇન્દ્રિય, સ્પર્શ ઈન્દ્રય, નિરુપહત થઈને મારા વશમાં થઇ તેજ ઇન્દ્રિય યાપનીય છે. એટલે કે કઈપણ જાતના વાંધા વગર વિષયને ગ્રહણ કરવાની તાકાત હોવા છતાં એ પાંચે ઈન્દ્રિય મારે વશ થયેલી છે તેજ
શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨