Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

Previous | Next

Page 717
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०१२ खातोदकविषये सुबुद्धिष्टान्तः ७०३ ततः खलु जितशत्रु सुबुद्धिम् एवमवादीत् मा खलु त्वं हे देवानुप्रिय ! आत्मानं= स्वकं च परम् = अन्यं च तदुभयं = स्वपररूपं समकमेव वा बहीमिश्र ' असम्भावुभावणार्हि ' असद्भावोद्भावनाभिः असताम् = अविद्यमानानां भावानां=वस्तुधर्माणां या उद्भावनाः=प्रतिपादनास्ताभिः = वस्तुस्वरूपान्यथा प्रतिपादनरूपाभिः 'मिच्छताभिणिवेसेण य' मिथ्यात्वाभिनिवेशेन = विपर्यासावशेन च अज्ञानावेशेनेत्यर्थः बुग्गामाणे ' व्युद्ग्राहयन्- विविधप्रकारेणोत्कृष्टतया चान्यं ग्राहयन् ' बुप्पाएमाणे' व्युत्पादयन् = व्युत्पत्तिं जनयन् विहर= अशुद्धप्ररूपणां कुर्वन् मा तिष्ठेत्यर्थ । मन अपनी देशना द्वारा प्ररूपित किया है । ( तरणं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी - माणं तुमं देवाणुप्पिया ! अप्पाणं च परं च तदुभयं वा बहू हिय असम्भावुभावणाहिं मिच्छताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे कुप्पामाणे विहराहि, तरणं सुबुद्धिस्स इमेयाख्वे अज्झत्थिए - अहो णं जियसत्तू संते तच्चे तहिए अवित सम्भूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभंति ) इस प्रकार सुनकर जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि प्रधान से इस तरह कहा - हे देवानुप्रिय ! तुम इस तरह की असद्भावनोद्भावक वचनों से - अविद्यमान वस्तु धर्मों की प्रतिपादनाओं से वस्तु का जो स्वरूप विद्यमान नही है उस स्वरूप को उस वस्तु में विद्यमानता का प्रतिपादन करने वाली वाणियों से एवं मिथ्यात्वाभिनिवेश आग्रह से इस तरह की प्ररूपणा मत करो, न स्वयं को इस प्रकार की प्ररूपणा से वासित करो और न दूसरों को इस तरह की झूठी २ प्ररूपणाओं से अपने फंदे में फसाओ और न अपने को और न दूसरों को एक ही 6 (तएण जियसत्तू सुबुद्धि एवं वयासी- माणं तुमं देवाशुप्पिया ! अप्पाण च परं च तदुभयं वा बहूहिं य असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गामाणे बुप्पाएमाणे विहराहि तएण सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए अहो ण जियसत्तू संते तच्चे तहिए अवित सम्भूए जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभंति) જીતશત્રુ રાજાએ આ પ્રમાણે સાંભળીને અમાત્ય સુબુદ્ધિને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે આ રીતે અસદ્ભાવના ભાવક વચનેથી-અવિદ્યમાન વસ્તુમાંંથી પ્રતિપાદનાએથી વસ્તુનું જે સ્વરૂપ વસ્તુમાં હાજર નથી તે સ્વરૂપને વસ્તુમાં ખતાવનારી વાણીથી અને મિથ્યાત્વાભિનિવેશના આગ્નહથી આ જાતનું નિરૂપણ કર। નહિ આવી પ્રરૂપણાથી પોતાની જાતને બચાવતા રહેા અને ખીજાઓને પણ આવી જૂઠી પ્રરૂપણામાં ફસાવવાની ચેષ્ટા કરે નહિ, તમે એકી સાથે પાતાની જાતને કે ખીજા માણસને આવી પ્રરૂપણાની લપેટમાં લેવાની કેશિશ કરે નહિ રાજાની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ પ્રધા શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્ર : ૦૨

Loading...

Page Navigation
1 ... 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846