Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 733
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १२ खातोदकविषयेसुबुद्धिद्रष्टान्तः ७१९ न्दितः हर्षवशविसर्पद हृदयः सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु हे देवानु. प्रिय ! नैर्ग्रन्थ्यं भवचनं ' तथ्यमेतत् ' इत्यादि यावत् तद् यथैव यद् यूयं वदय, तत्-तस्मात्कारणात् इच्छामि खलु तवान्तिके पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं यावद् एवं द्वादशविधं श्रावकधर्मम् ' उपसंपज्जित्ता' उपसम्पद्य-स्वीकृत्य विहर्तुम् । यथा मुखं हे देवानुप्रिय ! हे राजन् ! यदि रोचते तदा एवमेव कुरु, तत्र मामसुनकर और उसे हृदय में अवधारित कर बहुत ही अधिक प्रसन्न एवं तुष्ट हुए। हर्ष से गद्गद होकर उन्होंने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार काहा-(सदहामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं ३ जाव से जहेव जं तुम्भे वयह, तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वयं सत्तसि. क्खावइयं जाव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध० तएणं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जइ, तएणं जियसत्तू समणो. वासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभे माणे विहरइ ) हे देवानुप्रिय ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ इस पर रुचि करता हूँ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वथा सत्य है इत्यादि यावत् जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है। इस लिये मैं तुम्हारे पास पञ्च अणुव्रत सात शिक्षाव्रत रूप द्वादश विध श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहताहूँ । इस प्रकार राजा की बात सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख ह-वैसा करो प्रमाद न करो शुभ कर्म में સાંભળીને એને તેને શરીરમાં અવધારિત કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ તુષ્ટ થયે. હર્ષથી ગળગળો થઈને તેણે સુબુદ્ધિ અમાત્યને આ પ્રમાણે કહ્યું કે-- (सदहामिणं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं ३ जाव से जहेवं जं तुम्भे वयह तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध० तएणं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालस विहं सावयधम्म पडिवज्जइ तएणं जियसत्त समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ) હે દેવાનુપ્રિય! આ નિગ્રંથ પ્રવચનમાં હું શ્રદ્ધા રાખું છું, આમાં હું રુચિ રાખું છું. આ નિગ્રંથ પ્રવચન ખરેખર સત્ય છે વગેરે જેવું તમે કહે છે તેવું જ આ નિગ્રંથ પ્રવચન છે. એથી હું તમારી પાસેથી પંચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષા વ્રત રૂપ બાર (૧૨) પ્રકારને શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારવા ચાહું છું. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેને કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરે. પ્રમાદ કરે નહિ, સારા કામમાં મોડું કરવું એગ્ય શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૨

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