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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक इसी तरह परिपूर्णलोक की जानता और देखता है।
दो प्रकार से आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है, यथा-वैक्रिय शरीर बनाकर आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है और वैक्रिय शरीर बनाए बिना भी आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है । अवधि ज्ञानी वैक्रिय शरीर बनाकर अथवा बनाए बिना भी अधोलोक को जानता और देखता है । इसी तरह तिर्यक् लोक आदि आलापक समझना।
दो प्रकार से आत्मा शब्द सुनता है । यथा-देश रूप से आत्मा शब्द सुनता है और सर्व रूप से भी आत्मा शब्द सूनता है। इसी तरह रूप देखता है । इसी तरह गंध सूंघता है। इसी तरह रसों का आस्वादन करता है । इसी तरह स्पर्श का अनुभव करता है।
दो प्रकार से आत्मा प्रकाश करता है, यथा-देश रूप से आत्मा प्रकाश करता है, सर्व रूप से भी आत्मा प्रकाश करता है। इसी तरह विशेष रूप से प्रकाश करता है। विशेष रूप से वैक्रिय करता है। परिचार मैथुन करता है विशेष रूप से भाषा बोलता है । विशेष रूप से आहार करता है । विशेष रूप से परिणमन करता है । विशेष रूप से वेदन करता है। विशेष रूप से निर्जरा करता है । ये नव सूत्र देश और सर्व दो प्रकार से हैं।
देव दो प्रकार से शब्द सुनता है, यथा-देव देश से भी शब्द सुनता है और सर्व से भी शब्द सुनता है-यावत् निर्जरा करता है।
मरुत देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-एक शरीर वाले और दो शरीर वाले । इसी तरह किन्नर, किंपुरुष, गंधर्व, नागकुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार-ये भी एक शरीर और दो शरीर वाले समझने चाहिए।
स्थान-२ - उद्देशक-३ सूत्र-८१
शब्द दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-भाषा शब्द और नो-भाषा शब्द । भाषा शब्द दो प्रकार का कहा गया है, यथा-अक्षर सम्बद्ध और नो-अक्षर सम्बद्ध ।
नो-भाषा शब्द दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-आतोद्य और नो-आतोद्य । आतोद्य शब्द दो प्रकार का कहा गया है, यथा-तत और वितत, तत शब्द दो प्रकार का कहा गया है, यथा-घन और शुषिर । इसी तरह वितत शब्द भी दो प्रकार का जानना चाहिए।
नो आतोद्य शब्द दो प्रकार के कहे गए हैं । भूषण शब्द और नो-भूषण शब्द । नो-भूषण शब्द दो प्रकार का कहा गया है, यथा-ताल शब्द और लात-प्रहार का शब्द ।
शब्द की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है, यथा-पुद्गलों के परस्पर मिलने से शब्द की उत्पत्ति होती है, पुद्गलों के भेद शब्द की उत्पत्ति होती है। सूत्र - ८२
दो प्रकार से पुद्गल परस्पर सम्बद्ध होते हैं, यथा-स्वयं ही पुद्गल इकट्ठे हो जाते हैं, अथवा अन्य के द्वारा इकट्ठे किये जाते हैं । दो प्रकार से पुद्गल भिन्न भिन्न होते हैं, यथा-स्वयं ही पुद्गल भिन्न होते हैं । अथवा अन्य द्वारा पुद्गल भिन्न किये जाते हैं।
दो प्रकार से पुद्गल सड़ते हैं, यथा-स्वयं ही पुद्गल सड़ते हैं, अथवा अन्य के द्वारा सड़ाये जाते हैं । इसी तरह पुद्गल ऊपर गिरते हैं और इसी तरह पुद्गल नष्ट होते हैं।
पुद्गल दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-भिन्न और अभिन्न ।
पुद्गल दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-नष्ट होने वाले और नहीं नष्ट होने वाले । पुद्गल दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-परमाणु पुद्गल और परमाणु से भिन्न स्कन्ध आदि ।
पुद्गल दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सूक्ष्म और बादर । पुद्गल दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा बद्धपार्श्व स्पृष्ट और नो बद्धपार्श्व स्पृष्ट ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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