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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१७५
संसारी जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-स्त्री, पुरुष और नपुंसक । सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ।
अथवा सब जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्त, अपर्याप्त और नो-पर्याप्त-नो-अपर्याप्त । इसी तरह सम्यग्दृष्टि । परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी और भव्य इनमें से जो ऊपर नहीं कहे गए हैं उनके भी तीन तीन प्रकार समझने चाहिए। सूत्र-१७६
लोक-स्थिति तीन प्रकार की कही गई है, यथा-आकाश के आधार पर वायु रहा हुआ है, वायु के आधार पर उदधि, उदधि के आधार पर पृथ्वी ।
दिशाएं तीन कही गई हैं, यथा-ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्की दिशा । तीन दिशाओं में जीवों की गति होती है, ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में और तिर्की दिशा में।
__ इसी तरह आगति । उत्पत्ति, आहार, वृद्धि, हानि, गति पर्याय-हलन चलन, समुद्घात, कालसंयोग, अवधि दर्शन से देखना, अवधिज्ञान से जानना।
तीन दिशाओं में जीवों को अजीवों का ज्ञान होता है, यथा-ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में और तिर्की दिशा में। (तीनों दिशाओं में गति आदि तेरह पद समस्त रूप से चौबीस दण्डकों में से पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक और मनुष्य में ही होते हैं)। सूत्र-१७७
त्रस जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-तेजस्काय, वायुकाय और उदार (स्थूल) त्रस प्राणी।
स्थावर तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय। सूत्र-१७८
तीन अच्छेद्य हैं-समय, प्रदेश और परमाणु । इसी तरह इन तीनों का भेदन नहीं हो सकता, इसे जलाया नहीं जा सकता, इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता एवं इन तीनों का मध्यभाग नहीं हो सकता और यह तीनों अप्रदेशी हैं।
तीन अविभाज्य हैं, यथा-समय, प्रदेश और परमाणु । सूत्र - १७९
हे आर्यो ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले हे श्रमणों! प्राणियों को किससे भय है ? (तब) गौतमादि श्रमणनिर्ग्रन्थ श्रमण भगवान महावीर के समीप आते हैं और वन्दना-नमस्कार करते हैं । वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! यह अर्थ हम जानते नहीं हैं, देखते नहीं हैं, इसलिए यदि आपको कहने में कष्ट न होता हो तो हम यह बात आप श्री से जानना चाहते हैं।
आर्यो ! यों श्रमण भगवान महावीर गौतमादि श्रमणनिर्ग्रन्थों को सम्बोधित करके इस प्रकार बोले-हे श्रमणों! प्राणी दुःख से डरने वाले हैं । हे भगवन्! यह दुःख किसके द्वारा दिया गया है ? (भगवान बोले) जीव ने प्रमाद के द्वारा दुःख उत्पन्न किया है । हे भगवन् ! यह दुःख कैसे नष्ट होता है ? अप्रमाद से दुःख का क्षय होता है। सूत्र-१८०
हे भगवन् ! अन्य तीर्थिक इस प्रकार बोलते हैं, कहते हैं, प्रज्ञप्त करते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि श्रमणनिर्ग्रन्थों के मत में कर्म किस प्रकार दुःख रूप होते हैं ? (चार भंगों में से जो पूर्वकृत कर्म दुःख रूप होते हैं यह वे नहीं पूछते हैं, जो पूर्वकृत कर्म दुःखरूप नहीं होते हैं यह भी वे नहीं पूछते हैं, जो पूर्वकृत नहीं हैं परन्तु दुःखरूप होते हैं उसके लिए वे पूछते हैं । अकृतकर्म को दुःख का कारण मानने वाले वादियों का यह कथन है कि कर्म किये बिना ही दुःख होता है, कर्मों का स्पर्श किये बिना ही दुःख होता है, किये जाने वाले और किये हुए कर्मों के बिना ही दुःख होता है, प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व द्वारा कर्म किये बिना ही वेदना का अनुभव करते हैं ऐसा कहना चाहिए।
(भगवान बोले) जो लोग ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं । मैं ऐसा कहता हूँ, बोलता हूँ और प्ररूपणा करता मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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