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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक चतुरिन्द्रिय जीव पाँच स्थानों में पाँच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं।
पंचेन्द्रिय जीव पाँच स्थानों में पाँच स्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में यावत्पंचेन्द्रियों में आकर उत्पन्न होते हैं।
सभी जीव पाँच प्रकार के हैं, यथा-क्रोध कषायी-यावत् अकषायी । अथवा सभी जीव पाँच प्रकार के हैं, यथा-नैरयिक यावत् सिद्ध। सूत्र - ४९७
हे भगवन् ! चणा, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, बाल, कुलथ, चँवला, तुवर और कालाचणा कोठे में रखे हुए इन धान्यों की कितनी स्थिति है ? हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहुर्त उत्कृष्ट पाँच वर्ष । इसके पश्चात् योनि (जीवोत्पत्ति-स्थान) कुमला जाती है और शनैः शनैः योनि विच्छेद हो जाता है। सूत्र - ४९८
___ संवत्सर पाँच प्रकार के हैं, यथा-नक्षत्र संवत्सर, युग संवत्सर, प्रमाण संवत्सर, लक्षण संवत्सर, शनैश्चर संवत्सर।
युग संवत्सर पाँच प्रकार के हैं, यथा-चंद्र, चंद्र, अभिवर्धित, चंद्र, अभिवर्धित ।
प्रमाण संवत्सर पाँच प्रकार का है, यथा-नक्षत्र संवत्सर, चंद्र संवत्सर, ऋतु संवत्सर, आदित्य संवत्सर, अभिवर्धित संवत्सर । लक्षण संवत्सर पाँच प्रकार का है, यथासूत्र- ४९९
जिस तिथि में जिस नक्षत्र का योग होना चाहिए उस नक्षत्र का उसी तिथि में योग होता है जिसमें ऋतुओं का परिणमन क्रमशः होता रहता है, जिसमें सरदी और गरमी का प्रमाण बराबर रहता है, और जिसमें वर्षा अच्छी होती है वह नक्षत्र संवत्सर कहा है। सूत्र- ५००
जिसमें सभी पूर्णिमाओं में चन्द्र का योग रहता है, जिसमें नक्षत्रों की विषम गति होती है। जिसमें अतिशीत और अति ताप पड़ता है, और जिसमें वर्षा अधिक होती है वह चंद्र संवत्सर होता है। सूत्र-५०१
जिसमें वृक्षों का यथासमय परिणमन नहीं होता है, ऋतु के बिना फल लगते हैं, वर्षा भी नहीं होती है उसे कर्म संवत्सर या ऋतु संवत्सर कहते हैं। सूत्र- ५०२
जिसमें पृथ्वी जल, पुष्प और फलों को सूर्य रस देता है और थोड़ी वर्षा से भी पाक अच्छा होता है उसे आदित्य संवत्सर कहते हैं। सूत्र- ५०३
जिसमें क्षण, लव, दिवस और ऋतु सूर्य से तप्त रहते हैं, और जिसमें सद धूल उड़ती रहती है । उसे अभिवर्धित संवत्सर कहते हैं। सूत्र- ५०४
शरीर से जीव के नीकलने के पाँच मार्ग हैं, यथा-पैर, उरू, वक्षःस्थल, शिर, सर्वाङ्ग । पैरों से नीकलने पर जीव नरकगामी होता है, उरू से नीकलने पर जीव तिर्यंचगामी होता है, वक्षःस्थल से नीकलने पर जीव मनुष्य गति प्राप्त होता है । शिर से नीकलने पर जीव देवगतिगामी होता है, सर्वाङ्ग से नीकलने पर जीव मोक्षगामी होता है। सूत्र-५०५
छेदन पाँच प्रकार के हैं, यथा-उत्पाद छेदन-नवीन पर्याय की अपेक्षा से पूर्वपर्याय का छेदन । व्यय छेदन-पूर्व
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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