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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक आठवे स्वप्न में एक महान तेजस्वी सूर्य को देखकर जागृत हुए । नौवे स्वप्न में एक महान मानुषोत्तर पर्वत को वैडूर्यमणि वर्ण वाली अपनी आँतों से परिवेष्टित देखकर जागृत हुए । दसवे स्वप्न में महान मेरु पर्वत की चूलिका पर स्वयं को सिंहासनस्थ देखकर जागृत हुए।
प्रथम स्वप्न में ताल पिशाच को पराजित देखने का अर्थ यह है कि भगवान महावीर ने मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर दिया । द्वीतिय स्वप्न में श्वेत पाँखों वाले पुंस्कोकिल को देखने का अर्थ यह है कि भगवान महावीर शुक्ल ध्यान में रमण कर रहे थे। तृतीय स्वप्न में विचित्र रंग की पखों वाले पुंस्कोकिल को देखने का अर्थ यह है कि भगवान महावीर ने स्वसमय और परसमय के प्रतिपादन से चित्रविचित्र द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक का सामान्य कथन किया, विशेष कथन किया, प्ररूपण किया, युक्तिपूर्वक क्रियाओं के स्वरूप का दर्शन निदर्शन किया । यथा-आचाराङ्ग यावत् दृष्टिवाद । चतुर्थ स्वप्न में सर्व रत्नमय माला युगल को देखने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर ने दो प्रकार का धर्म कहा-यथा-आगार धर्म और अणगार धर्म । पाँचवे स्वप्न में श्वेत गो-वर्ग को देखने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर के चार प्रकार का संघ था । श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक, श्राविकाएं।
छठे स्वप्न में पद्म सरोवर को देखने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर ने चार प्रकार के देवों का प्रतिपादन किया । यथा-१. भवनपति, २. वाणव्यन्तर, ३. ज्योतिष्क, ४. वैमानिक । सातवे स्वप्न में सहस्रतरंगी सागर को भुजाओं से तिरने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर ने अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग वाली गति रूप विकट भवाटवी को पार किया। आठवे स्वप्न में तेजस्वी सूर्य को देखने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर को अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन उत्पन्न हुआ । नौवे स्वप्न में आँतों से परिवेष्टित मानुषोत्तर पर्वत को देखने का अर्थ यह है कि इस लोक के देव, मनुष्य और असुरों में श्रमण भगवान महावीर की कीर्ति एवं प्रशंसा इस प्रकार फैल रही है कि श्रमण भगवान महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी सर्वसंशयोच्छेदक एवं जगद्वत्सल हैं । दसवे स्वप्न में चूलिका पर स्वयं को सिंहासनस्थ देखने का अर्थ यह है कि श्रमण भगवान महावीर देव, मनुष्यों और असुरों की परीषद में केवली प्रज्ञप्त धर्म का सामान्य से कथन करते हैं यावत् समस्त नयों को युक्तिपूर्वक समझाते हैं। सूत्र- ९६२, ९६३
सराग सम्यग्दर्शन दस प्रकार का है। निसर्गरुचि-जो दूसरे का उपदेश सूने बिना स्वमति से सर्वज्ञ कथित सिद्धांतों पर श्रद्धा करे । उपदेश रुचि-जो दूसरों के उपदेश से सर्वज्ञ प्रतिपादित सिद्धान्तों पर श्रद्धा करे । आज्ञारुचिजो केवल आचार्य या सद्गुरु के कहने से सर्वज्ञ कथित सूत्रों पर श्रद्धा करे । सूत्ररुचि-जो सूत्र शास्त्र वाँचकर श्रद्धा करे । बीजरुचि-जो एक पद के ज्ञान से अनेक पदों को समझ ले । अभिगम रुचि-जो शास्त्र को अर्थ सहित समझे । विस्ताररुचि-जो द्रव्य और उनके पर्यायों को प्रमाण तथा नय के द्वारा विस्तारपूर्वक समझे । क्रियारुचि-जो आचरण में रुचि रखे । संक्षेपरुचि- जो स्वमत और परमत में कुशल न हो किन्तु जिसकी रुचि संक्षिप्त त्रिपदी में हो । धर्मरुचिजो वस्तु स्वभाव की अथवा श्रुत चारित्ररूप जिनोक्त धर्म की श्रद्धा करे। सूत्र-९६४
संज्ञा दस प्रकार की होती है, यथा-आहार संज्ञा यावत् परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा यावत् लोभ संज्ञा, लोक संज्ञा, ओधसंज्ञा, नैरयिकों में दस प्रकार की संज्ञाएं होती हैं, इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त दस संज्ञाएं हैं। सूत्र-९६५
नैरयिक दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं, यथा-शीत वेदना, उष्णवेदना, क्षुधा वेदना, पिपासा वेदना, कंडुवेदना, पराधीनता, भय, शोक, जरा, व्याधि । सूत्र- ९६६
दस पदार्थों छद्मस्थ पूर्ण रूप से न जानता है और न देखता है, यथा-धर्मास्तिकाय यावत् वायु, यह पुरुष जिन होगा या नहीं, यह पुरुष सब दुःखों का अन्त करेगा या नहीं? इन्हीं दस पदार्थों को सर्वज्ञ सर्वदर्शी पूर्ण रूप से जानते हैं और देखते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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