Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 150
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक सही संख्या प्राप्त न होने पर भी इसी गाँव में दस बालक जन्मे हैं और दस वृद्ध मरे हैं । इस प्रकार कहना । जीव मिश्रक-जीवित और मृत जीवों के समूह को देखकर जीव समूह है ऐसा कहना । अजीव मिश्रक-जीवित और मृत जीवों के समूह को देखकर यह अजीव समूह है ऐसा कहना । जीवाजीव मिश्रक-जीवित और मृत जीवों के समूह को देखकर इतने जीवित हैं और इतने मृत हैं ऐसा कहना । अनन्त मिश्रक-पत्ते सहित कन्द मूल को अनन्तकाय कहना । प्रत्येक मिश्रक-मोगरी सहित मूली को प्रत्येक वनस्पति कहना । अद्धामिश्रक-सूर्योदय न होने पर भी सूर्योदय हो गया ऐसा कहना । अद्धाद्धामिश्रक-एक प्रहर दिन हुआ है फिर भी दुपहर हो गया ऐसा कहना । सूत्र - ९४३ दृष्टिवाद के दस नाम हैं, यथा-दृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तत्ववाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषाविषय, पूर्वगत, अनुयोगगत, सर्व प्राण भूत जीव सत्व सुखवाद । सूत्र- ९४४,९४५ शस्त्र दश प्रकार के हैं, यथा- अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, आम्ल, दुष्प्रयुक्तमन, दुष्प्रयुक्तवचन, दुष्प्रयुक्तकाय, अविरतिभाव। सूत्र - ९४६, ९४७ (वाद के) दोष दस प्रकार के हैं, यथा-तज्जात दोष-प्रतिवादी के जाति कुल को दोष देना, मति भंग-विस्मरण, प्रशास्तृदोष-सभापति या सभ्यों का निष्पक्ष न रहना । परिहरण दोष-प्रतिवादी के दिये हुए दोष का निराकरण न कर सकना । स्वलक्षण दोष-स्वकथित लक्षण का सदोष होना । कारण दोष-साध्य के साथ साधन का व्यभिचार | हेतुदोष-सदोष हेतु होना । संक्रामण दोष-प्रस्तुत में अप्रस्तुत का कथन । निग्रहदोष-प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रह स्थान का कथन । वस्तुदोष-पक्ष में दोष का कथन । सूत्र- ९४८, ९४९ विशेष दोष दस प्रकार के हैं । यथा- वस्तु-पक्ष में प्रत्यक्ष निराकृत आदि दोष का कथन, तज्जातदोष-जाति कुल आदि दोष का देना, दोष-मतिभंगादि पूर्वोक्त आठ दोषों की अधिकता, एकार्थिक दोष-समानार्थक शब्द कहना, कारणदोष-कारण को विशेष महत्त्व देना, प्रत्युत्पन्नदोष-वर्तमान में उत्पन्न दोष का विशेष रूप से कथन, नित्यदोषवस्तु को एकान्त नित्य मानने से उत्पन्न होने वाले दोष, अधिकदोष-वाद काल में आवश्यकता से अधिक कहना, स्वकृतदोष, उपनीत दोष-अन्य का दिया हआ दोष । सूत्र- ९५० शुद्ध वागनुयोग दस प्रकार का है, यथा-चकारानुयोग-वाक्य में आने वाले च का विचार । मकारानुयोगवाक्य में आने वाले म का विचार । अपिकारानुयोग- अपि शब्द का विचार । सेकारानुयोग-आनन्तर्यादि सूचक से शब्द का विचार | सायंकारानुयोग-ठीक अर्थ में प्रयुक्त सायं का विचार । एकत्वानुयोग-एक वचन के सम्बन्ध में विचार । पृथक्त्वानुयोग-द्विवचन और बहुवचन का विचार । संयूथानुयोग-समास सम्बन्धी विचार । संक्रामितानुयोगविभक्ति विपर्यास के सम्बन्ध में विचार । भिन्नानुयोग सामान्य बात कहने के पश्चात् क्रम और काल की अपेक्षा से उसके भेद करने के सम्बन्ध में विचार करना। सूत्र- ९५१, ९५२ दान दस प्रकार का होता है, यथा अनुकम्पादान-कृपा करके दीनों और अनाथों को देना, संग्रहदान-आपत्तियों में सहायता देना, भयदान-भय से राजपुरुषों को कुछ देना, कारुण्यदान-शोक अर्थात् पुत्रादि वियोग के कारण कुछ देना । लज्जादान-ईच्छा न होते हुए भी पाँच प्रमुख व्यक्तियों के कहने से देना । गोरवदान-अपने यश के लिए गर्वपूर्वक देना । अधर्मदान-अधर्मी पुरुष को देना । धर्मदान-सुपात्र को देना । आशादान-सुफल की आशा से देना । प्रत्युपकारदान-किसी के उपकार के बदले कुछ देना। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 150

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