Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 148
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ९२५ दर्प प्रतिसेवना-दर्पपूर्वक दौड़ने या वध्यादि कर्म करने से । प्रमाद प्रतिसेवना-हास्य विकथा आदि प्रमाद से अनाभोग प्रतिसेवना-आतुर प्रतिसेवना-स्वयं की या अन्य की चिकित्सा हेतु । आपत्ति प्रतिसेवना-विपद्ग्रस्त होने से शंकित प्रतिसेवना-शुद्ध आहारादि में अशुद्ध की शंका होने पर भी ग्रहण करने से । सहसात्कार प्रतिसेवनाअकस्मात् दोष लग जाने से । भयप्रतिसेवना-राजा चोर आदि के भय से । प्रद्वेषप्रतिसेवना-क्रोधादि कषाय की प्रबलता से । विमर्श प्रतिसेवना-शिष्यादि की परीक्षा के हेतु । सूत्र- ९२६ आलोचना के दश दोष हैं, यथासूत्र- ९२७ अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचना करे-आलोचना लेने के पहले गुरु महाराज की सेवा इस संकल्प से करे कि ये मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मेरे पर अनुकम्पा करके कुछ कम प्रायश्चित्त देंगे । अनुमान करके आलोचना करे ये आचार्यादि मृत्यु दण्ड देने वाले हैं या कठोर दण्ड देने वाले हैं, यह अनुमान से जानकर मृदु दण्ड मिलने की आशा से आलोचना करे । मेरा दोष इन्होंने देख लिया है ऐसा जानकर आलोचना करे-आचार्यादि ने मेरा यह दोष-सेवन देख तो लिया ही है अब इसे छिपा नहीं सकता अतः मैं स्वयं इनके समीप जाकर अपने दोष की आलोचना कर लूँ इससे ये मेरे पर प्रसन्न होंगे-ऐसा सोचकर आलोचना करे किन्तु दोष सेवी को ऐसा अनुभव हो कि आचार्यादि ने मेरा दोष सेवन देखा नहीं है, ऐसा विचार करके आलोचना न करे अतः यह दृष्ट दोष है । स्थूल दोष की आलोचना करे-अपने बड़े दोष की आलोचना इस आशय से करे कि यह कितना सत्यवादी हैं ऐसी प्रतीति कराने के लिए बड़े दोष की आलोचना करे सूक्ष्म दोष की आलोचना करे-यह छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करता है तो बड़े दोषों की आलोचना करने में तो सन्देह ही क्या है ऐसी प्रतीति कराने के लिए सूक्ष्म दोषों की आलोचना करे । प्रच्छन्न रूप से आलोचना करेआचार्यादि सून न सके ऐसे धीमे स्वर से आलोचना करे अतः आलोचना नहीं करी ऐसा कोई न कह सके । उच्च स्वर में आलोचना करे-केवल गीतार्थ ही सून सके ऐसे स्वर से आलोचना करनी चाहिए किन्तु उच्च स्वर से बोलकर अगीतार्थ को भी सूनावे । अनेक के समीप आलोचना करे-दोष की आलोचना एक के पास ही करनी चाहिए, किन्तु जिन दोषों की आलोचना पहले कर चूका है उन्हीं दोषों की आलोचना दूसरों के पास करे । अगीतार्थ के पास आलोचना करे-आलोचना गीतार्थ के पास ही करनी चाहिए किन्तु ऐसा न करके अगीतार्थ के पास आलोचना करे । दोषसेवी के पास आलोचना करे-मैंने जिस दोष का सेवन किया है उसी दोष का सेवन गुरुजी ने भी किया है अतः मैं उन्हीं के पास आलोचना करूँ-क्योंकि ऐसा करने से वे कुछ कम प्रायश्चित्त देंगे। सूत्र- ९२८ दश स्थान (गुण) सम्पन्न अणगार अपने दोषों की आलोचना करता है, यथा-जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न शेष अष्टमस्थानक समान यावत् क्षमाशील, दमनशील, अमायी, अपश्चात्तापी लेने के पश्चात् पश्चात्ताप न करने वाला। दश स्थान (गुण) सम्पन्न अणगार आलोचना सूनने योग्य होता है । यथा-आचारवान् अवधारणावान्, व्यवहारवान्, अल्पव्रीडक-आलोचक की लज्जा दूर कराने वाला, जिससे आलोचक सुखपूर्वक आलोचना कर सके। शुद्धि करने में समर्थ, आलोचक की शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देने वाले, आलोचक के दोष दूसरों को न कहने वाला, दोष सेवन से अनिष्ट होता है ऐसा समझा सकने वाला, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी। प्रायश्चित्त दश प्रकार का है, यथा-आलोचना योग्य, यावत् अनवस्थाप्यार्ह-जिस दोष की शुद्धि साधु को अमुक समय तक व्रतरहित रखकर पुनः व्रतारोपण रूप प्रायश्चित्त से हो । और पारंचिकाई-गृहस्थ के कपड़े पहनाकर जो प्रायश्चित्त दिया जाए। सूत्र- ९२९ मिथ्यात्व दश प्रकार का है, यथा-अधर्म में धर्म की बुद्धि, धर्म में अधर्म की बुद्धि, उन्मार्ग में मार्ग की बुद्धि, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 148

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