________________
आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सत्र-९१०
ऐन्द्री, आग्नेयी, यमा, नैऋती, वारुणी, वायव्या, सोमा, ईशाना, विमला, तमा।
सूत्र-९११
लवण समुद्र के मध्य में दस हजार योजन का गोतीर्थ विरहित क्षेत्र है।
लवण समुद्र के जल की शिखा दस हजार योजन की है। सभी (चार) महापाताल कलश दस-दस सहस्त्र (एक लाख योजन) के गहरे हैं । मूल में दस हजार योजन के चौड़े हैं । मध्य भाग में एक प्रदेश वाली श्रेणी में दस-दस हजार (एक लाख) योजन चौड़े हैं । कलशों के मुँह दस हजार योजन चौड़े हैं । उन महापाताल कलशों की ठीकरी वज्रमय है और दस सौ (एक हजार) योजन की सर्वत्र समान चौड़ी है।
सभी (चार) लघुपाताल कलश दस सौ (एक हजार) योजन गहरे हैं । मूल में दस दशक (सौ) योजन चौड़े हैं । मध्यभाग में एक प्रदेश वाली श्रेणी में दश सौ (एक हजार) योजन चौड़े हैं । कलशों के मुँह दश दशक (सौ) योजन चौड़े हैं। उन लघुपाताल कलशों की ठीकरी वज्रमय है और दश योजन की सर्वत्र समान चौड़ी है। सूत्र - ९१२
धातकीखण्ड द्वीप के मेरु भूमि में दश सौ (एक हजार) योजन गहरे हैं । भूमि पर कुछ न्यून दश हजार योजन चौड़े हैं। ऊपर से दश सौ (१००० योजन) चौड़े हैं । पुष्करवर अर्द्धद्वीप के मेरु पर्वतों का प्रमाण भी इसी प्रकार का है सूत्र- ९१३
सभी वृत्त वैताढ्य पर्वत दश सौ (एक हजार) योजन ऊंचे हैं । भूमि में दश सौ (एक हजार) गाऊ गहरे हैं। सर्वत्र समान पल्यंक संस्थान से संस्थित हैं और दश सौ (एक हजार) योजन चौड़े हैं। सूत्र-९१४
जम्बूद्वीप में दश क्षेत्र हैं, यथा-भरत, ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष, पूर्वविदेह, अपरविदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु। सूत्र- ९१५
मानुषोत्तर पर्वत मूल में दश सौ बाईस (१०२२) योजन चौड़ा है। सूत्र - ९१६
सभी अंजनक पर्वत भूमि में दश सौ (एक हजार) योजन गहरे हैं । भूमि पर मूल में दश हजार योजन चौड़े हैं। ऊपर से दश सौ (एक हजार) योजन चौड़े हैं।
सभी दधिमुख पर्वत दश सौ (एक हजार) योजन भूमि में गहरे हैं । सर्वत्र समान पल्यंक संस्थान से संस्थित हैं और दश हजार योजन चौड़े हैं।
सभी रतिकर पर्वत दश सौ (एक हजार) योजन ऊंचे हैं । दश सौ (एक हजार) गाऊ भूमि में गहरे हैं । सर्वत्र समान झालर के संस्थान से स्थित हैं और दश हजार योजन चौड़े हैं। सूत्र- ९१७
रुचकवर पर्वत दश सौ योजन भूमि में गहरे हैं । मूल में (भूमि पर) दस हजार योजन चौड़े हैं। ऊपर से दस सौ योजन चौड़े हैं। इसी प्रकार कुण्डलवर पर्वत का प्रमाण भी कहना चाहिए। सूत्र - ९१८
द्रव्यानुयोग दस प्रकार का है, यथा-द्रव्यानुयोग, जीवादि द्रव्यों का चिन्तन यथा-गुण-पर्यायवद् द्रव्यम् । मातृकानुयोग-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन पदों का चिन्तन । यथा-उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत् । एकार्थिकानुयोग-एक अर्थ वाले शब्दों का चिन्तन । यथा-जीव, प्राण, भूत और सत्त्व इन एकार्थवाची शब्दों का चिन्तन । करणानुयोग-साधकतम कारणों का चिन्तन । यथा-काल, स्वभाव, निषति और साधकतम कारण से कर्ता कार्य करता है। अर्पितानर्पित-यथा-अर्पित-विशेषण सहित-यह संसारी जीव हैं । अनर्पित विशेषण रहित-यह जीव द्रव्य हैं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 146