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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक शक्रेन्द्र के पैदल सेनापति हरिणगमेषी देव के सात कच्छ हैं । चमरेन्द्र के समान अच्युतेन्द्र पर्यन्त कच्छ और देवताओं का वर्णन समझे । पैदल सेनापतियों के नाम पूर्ववत् कहें। देवताओं की संख्या इन दो गाथाओं से जाननी चाहिए। सूत्र - ६८४
शक्रेन्द्र के पैदल सेनापति के प्रथम कच्छ में ८४००० देव हैं । ईशानेन्द्र के ८०००० देव हैं । सनत्कुमार के ७२००० देव हैं । माहेन्द्र के ७०,००० देव हैं । ब्रह्मेन्द्र के ६०,००० देव हैं । लांतकेन्द्र के ५०,००० देव हैं । महा-शुक्रेन्द्र के ४०,००० देव हैं । सहस्रारेन्द्र के ३०,००० देव । आनतेन्द्र और आरणेन्द्र के २०,००० देव । प्राणतेन्द्र और अच्युतेन्द्र के २०,००० देव । प्रत्येक कच्छ में पूर्व कच्छ से दुगुने-दुगुने देव कहें। सूत्र-६८५
वचन विकल्प सात प्रकार के-आलाप-अल्प भाषण, अनालाप-कुत्सित आलाप, उल्लाप-प्रश्न-गर्भित वचन, अनुल्लाप-निन्दित वचन, संलाप-परस्पर भाषण करना, प्रलाप-निरर्थक वचन, विप्रलाप-विरुद्ध वचन । सूत्र- ६८६
विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वचन विनय, काय विनय, लोकोपचार विनय ।
प्रशस्त मन विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-अपापक-शुभ चिंतन रूप विनय, असावद्य-चोरी आदि निन्दित कर्म रहित, अक्रिय कायिकादि क्रिया रहित, निरुपक्लेश-शोकादि पीड़ा रहित, अनावकर-प्राणा-तिपातादि रहित, अक्षतकर-प्राणियों की पीड़ित न करने रूप, अभुताभिशंकन-अभयदान रूप । अप्रशस्त मन विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-पापक-अशुभ चिंतन रूप, सावद्य-चोरी आदि निन्दित कर्म, सक्रिय-कायिकादि क्रिया युक्त, सोपक्लेश-शोकादि पीड़ा युक्त, आश्रवकर-प्राणातिपातादि आश्रव, क्षयकर-प्राणियों को पीड़ित करने रूप, भूताभिशंकन-भयकारी।
प्रशस्त वचनविनय सात प्रकार का है, अपापक, असावध यावत् अभूताभिशंकन अप्रशस्त वचन विनय सात प्रकार का है, यथा-पापक यावत् भूताभिशंकन।
प्रशस्तकाय विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-उपयोगपूर्वक गमन, उपयोग पूर्वक स्थिर रहना, उपयोगपूर्वक बैठना, उपयोगपूर्वक सोना, उपयोगपूर्वक देहली आदि का उल्लंघन करना, उपयोगपूर्वक अर्गला आदि का अतिक्रमण, उपयोगपूर्वक इन्द्रियों का प्रवर्तन । अप्रशस्तकाय विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-उपयोग बिना गमन करना यावत्-उपयोग बिना इन्द्रियों का प्रवर्तन ।
लोकोपचार विनय सात प्रकार का कहा गया है, यथा-अभ्यासवर्तित्व-समीप रहना-जिससे बोलने वाले को तकलीफ न हो, परछंदानुवर्तित्व-दूसरे के अभिप्राय के अनुसार आचरण करना, कार्यहेतु-इन्होंने मुझे श्रुत दिया है अतः इनका कहना मुझे मानना ही चाहिए। कृतप्रतिकृतिता-इनकी मैं कुछ सेवा करूँगा तो ये मेरे पर कुछ उपकार करेंगे, आर्तगवेषण-रुग्ण की गवेषणा करके औषध देना, देश-कालज्ञता-देश और काल को जानना, सभी अवसरों में अनुकूल रहना। सूत्र-६८७
समुद्घात सात प्रकार के कहे गए हैं, यथा-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, केवली समुद्घात । मनुष्यों के सात समुद्घात कहे गए हैं, यथा-पूर्ववत् । सूत्र - ६८८
श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में सात प्रवचननिह्नव हुए, यथा-बहुरत-दीर्घकाल में वस्तु की उत्पत्ति मानने वाले, जीव प्रदेशिका-अन्तिम जीव प्रदेश में जीवत्व मानने वाले, अव्यक्तिका-साधु आदि को संदिग्ध दृष्टि से देखने
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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