Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 125
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक स्थान-८ सूत्र- ६९९ आठ गुण सम्पन्न अणगार एकलविहारी प्रतिमा धारण करने योग्य होता है, यथा-श्रद्धावान, सत्यवादी, मेघावी, बहुश्रुत, शक्तिमान, अल्पकलही, धैर्यवान, वीर्यसम्पन्न । सूत्र-७०० योनिसंग्रह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-अंडज, पोतज यावत्-उद्भिज और औपपातिक । अंडज आठ गति वाले हैं, और आठ आगति वाले हैं । अण्डज यदि अण्डजों में उत्पन्न हो तो अण्डजों से पोतजों से यावत्-औपपातिकों से आकर उत्पन्न होते हैं । वही अण्डज अण्डजपने को छोड़कर अण्डज रूप में यावत् -औपपातिक रूप में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार जरायुजों की गति आगति कहें। शेष रसज आदि पाँचों की गति आगति न कहें। सूत्र - ७०१ जीवों ने आठ कर्म प्रकृतियों का चयन किया है, करते हैं और करेंगे । यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय । नैरयिकों ने आठ कर्म प्रकृतियों का चयन किया है, करते हैं और करेंगे । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहें। इसी प्रकार उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के सूत्र कहें । प्रत्येक के दण्डक सूत्र कहें। सूत्र-७०२ आठ कारणों से मायावी माया करके न आलोयणा करता है, न प्रतिक्रमण करता है, यावत्-न प्रायश्चित्त स्वीकारता है, यथा-मैंने पापकर्म किया है अब मैं उस पाप की निन्दा कैसे करूँ? मैं वर्तमान में भी पाप करता हूँ अतः मैं पाप की आलोचना कैसे करूँ? मैं भविष्य में भी यह पाप करूँगा-अतः मैं आलोचना कैसे करूँ ? मेरी अपकीर्ति होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूँ? मेरा अपयश होगा अतः मैं आलोचना कैसे करूँ ? पूजा प्रतिष्ठा की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूँ? कीर्ति की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूँ? मेरे यश की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूँ? आठ कारणों से मायावी माया करके आलोयणा करता है-यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करता है, यथा-मायावी का यह लोक निन्दनीय होता है अतः मैं आलोचना करूँ । उपपात निन्दित होता है । भविष्य का जन्म निन्दनीय होता है । एक वक्त माया करे आलोचना न करे तो आराधक नहीं होता है । एक वक्त माया करके आलोचना करे तो आराधक होता है। अनेक बार माया करके आलचना न करे तो आराधक नहीं होता है। अनेक बार माया करके भी आलोचना करे तो आराधक होता है । मेरे आचार्य और उपाध्याय विशिष्ट ज्ञान वाले हैं, वे जानेंगे की यह मायावी है। अतः मैं आलोचना करूँ-यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करूँ। माया करने पर मायावी का हृदय किस प्रकार पश्चात्ताप से दग्ध होता रहता है-यह यहाँ पर उपमा द्वारा बताया गया है । जिस प्रकार लोहा, ताँबा, कलई, शीशा, रूपा और सोना गलाने की भट्ठी, तिल, तुस, भूसा, नल और पत्तों की अग्नि । दारु बनाने की भट्ठी, मिट्टी के बरतन, गोले, कवेलु, ईंटे आदि पकाने का स्थान, गुड़ पकाने की भट्ठी और लुहार की भट्ठी में शूले के फूल और उल्कापात जैसे जाज्वल्यमान, हजारों चिनगारियाँ जिनसे उछल रही है ऐसे अंगारों के समान मायावी का हृदय पश्चात्ताप रूप अग्नि से निरन्तर जलता रहता है । मायावी को सदा ऐसी आशंका बनी रहती है कि ये सब लोग मेरे पर ही शंका करते हैं। मायावी माया करके आलोचना किये बिना यदि मरता है और देवों में उत्पन्न होता है तो वह महर्द्धिक देवों में यावत् सौधर्मादि देवलोकोंमें उत्पन्न नहीं होता है। उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में भी वह उत्पन्न नहीं होता है । उस देव की बाह्य या आभ्यन्तर परीषद् भी उसके सामने आती है लेकिन परीषद् के देव उस देव का आदर समादर नहीं करते हैं, तथा उसे आसन भी नहीं देते हैं । वह यदि किसी देव को कुछ कहता है तो चार पाँच देव उसके सामने आकर उसका मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 125

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