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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक
स्थान-९ सूत्र-८००
नौ प्रकार के सांभोगिक श्रमण निर्ग्रन्थों को विसंभोगी करे तो भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता है, यथा-आचार्य के प्रत्यनीक को, उपाध्याय के प्रत्यनीक को, स्थविरों के प्रत्यनीक को, कुल के प्रत्यनीक को, गण के प्रत्यनीक को, संघ के प्रत्यनीक को, ज्ञान के प्रत्यनीक को, दर्शन के प्रत्यनीक को, चारित्र के प्रत्यनीक को। सूत्र-८०१
ब्रह्मचर्य (आचारसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध) के नौ अध्ययन हैं, यथा-शस्त्र परिज्ञा, लोक विजय यावत्-उपधान श्रुत और महापरिज्ञा। सूत्र- ८०२
ब्रह्मचर्य की गुप्ति (रक्षा) नौ प्रकार की है, यथा-एकान्त (पृथक्) शयन और आसन का सेवन करना चाहिए, किन्तु स्त्री, पशु और नपुंसक के संसर्ग वाले शयनासन का सेवन नहीं करना चाहिए, स्त्री कथा नहीं कहनी चाहिए, स्त्री के स्थान में निवास नहीं करना चाहिए, स्त्री की मनोहर इन्द्रियों के दर्शन और ध्यान नहीं करना चाहिए, विकार वर्धक रस का आस्वादन नहीं करना चाहिए, आहारादि की अतिमात्रा नहीं लेनी चाहिए, पूर्वानुभूत रति-क्रीड़ा का स्मरण नहीं करना चाहिए, स्त्री के रागजन्य शब्द और रूप की तथा स्त्री की प्रशंसा नहीं सूननी चाहिए, शारीरिक सुखादि में आसक्त नहीं होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य की अगुप्ति नव प्रकार की है, यथा-एकान्त शयन और आसन का सेवन नहीं करे अपितु स्त्री, पशु तथा नपुंसक सेवित शयनासन का उपयोग करे, स्त्री कथा कहे, स्त्री स्थानों का सेवन करे, स्त्रियों की इन्द्रियों का दर्शन यावत् ध्यान करे, विकार वर्धक आहार करे, आहार आदि अधिक मात्रा में सेवन करे, पूर्वानुभूत रतिक्रीड़ा का स्मरण करे, स्त्रियों के शब्द तथा रूप की प्रशंसा करे, शारीरिक सुखादि में आसक्त रहे। सूत्र-८०३
अभिनन्दन अरहन्त के पश्चात् सुमतिनाथ अरहन्त नव लाख क्रोड़ सागर के पश्चात् उत्पन्न हुए। सूत्र-८०४
शाश्वत पदार्थ नव हैं, यथा-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष । सूत्र-८०५
संसारी जीव नौ प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय, एवं बेइन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय ।
पृथ्वीकायिक जीवों की नौ गति और नौ आगति । यथा-पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो पृथ्वीकायिकों से यावत् पंचेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं । पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकपन को छोड़कर पृथ्वीकायिक रूप में यावत् पंचेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अप्कायिक जीव-यावत् पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं।
सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव, सिद्ध । अथवा सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, यथा-प्रथम समयोत्पन्न नैरयिक, अप्रथमसमयोत्पन्न नैरयिक यावत् अप्रथम समयोत्पन्न देव और सिद्ध।
सर्व जीवों की अवगाहना नौ प्रकार की है, यथा-पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना, अप्कायिक जीवों की अवगाहना, यावत् वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना, बेइन्द्रिय जीवों की अवगाहना, तेइन्द्रिय जीवों की अवगाहना, चउरिन्द्रिय जीवों की अवगाहना और पंचेन्द्रिय जीवों की अवगाहना।
संसारी जीव नौ प्रकार के थे, हैं और रहेंगे। यथा-पृथ्वीकायिक रूप में यावत् पंचेन्द्रिय रूप में। सूत्र-८०६
नौ कारणों से रोगोत्पत्ति होती है, यथा-अति आहार करने से, अहितकारी आहार करने से, अति निद्रा लेने से,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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